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पुलः एक गवाह का बयान / प्रकाश मनु

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पहले दो किनारे थे-दो झड़पदार किनारे
एक-दूसरे के खिलाफ बेतरह तने हुए,
एक-दूसरे पर उगलते विष!
दोनों पर क्रोध-लाल भभूका क्रोध का ऐसा चार्ज
कि हवाएं जो छू-छूकर निकलती थीं पास से
तिलमिलाती थी .....

फिर धीरे-धीरे वह चार्ज घुला
घुलता गया हवा में
नफरत की काली गाद बैठती गई
तलहटी में

और अब थे दो तटस्थ
निरपेक्ष किनारे
एक-दूसरे के सुख-दुख और उदग्र अपमानों से उदासीन!

फिर आया एक अधपगला सनकी हमारे देखते-देखते
उसने देखा दोनों की ओर कुतूहली आंख से
और कहा मुसकराकर कि इन पर एक पुल बनाना चाहिए
इंसानी रिश्तों का-
जरूर-हां, जरूर ही!

पुल..... ? वे हंसे इस कदर
कि सभी का जी थर्राया
पुल.....? हंसे लोग सभी
जानते थे जो दोनों झड़पदार किनारों का इतिहास
पागल!.... कोई पागल ही कर सकता है
ऐसी बेवकूफाना हिमाकत!!
पंचों ने मिल-जुलकर सुनाया फैसला।
मगर वह जो था थोड़ा अधपगला थोड़ा सनकी
गाए उसने तराने प्यार के
पढ़े एकता के मंत्र....
और लगा रहा अपनी धुन में लगातार
लिए अपना झोला । लोहा-लंगड़.... फीता....औजार....

और एक दिन जब उसने दोनों के कंधे पर
रखा भारी लोहे का गार्डर
दोनों कुनमुनाए-‘न....नहीं! ‘मगर
फिर दोनों हो गए शांत।
फिर मेरे देखते ही देखते रखा गया
दूसरा भारी-भरकम गार्डर भी

दूसरे कंधे पर
फिर बीच में पत्थरों की बड़ी-बड़ी सिल्लियां
रोड़ी, सीमेंट....लोहा-लंगड़ और न जाने क्या-क्या!
और फिर बना
वह पुल.....!

और आज देखा जो अजूबा
उसकी याद मात्र से थरथरा रही है देह....
वह एक साथ बदला हुआ भूगोल था बदला हुआ
इतिहास भी-

और उस पर इंसानों-
इंसानी भावनाओं की
आवाजही

चालू है!
बच्चे, बूढ़े, जवान, रंग-बिरंगे कपड़ों और
कामनाओं वाली स्त्रियां-
सभी उस पर खुशी-खुशी आ-जा रहे हैं
और दोनों किनारे....?
यकीन मानिए, मैंने पहली बार उन्हें हंसते देखा है।