गोरख पांडेय के लिए एक कविता / प्रकाश मनु
मंच पर जो खास-खास प्राणी थे सवार
बताया उन्होंने-
कि लो
चला गया यों जाने वाला
और हमीं रह गए बुरी तरह मलते हाथ
कि हमारे हाथों से कैसे छूट निकता।
...गोरख जी को अभी तो बहुत लिखने थे
भोजपुरी गाने
करने थीं क्रांतियां
मिटा ही देते गर कुछ गड्ढे और कुछ भ्रांतियां
तो हम गाते न बैठ आज समतल जमीं पर
समवेत स्वरों में-
‘गुलमियां अब न बजइबे...’
और और भी बढ़िया किस्म की होतीं
शोक-श्रद्धांजलियां
बहरहाल जो वह कर गए
खूब कर गए।
उन्होनें बताया
कि अब तो शव का मामला है
जो सड़ गया है
शव वे देना नहीं चाहते
हम लेना चाहते है-बल्कि लेकर रहेंगे
वही तो असली चीज है
जो अब बाकी है
हमारे-तुम्हारे सिद्धांत के लिए...
(और सिद्धांत नहीं तो हम नहीं, तुम नहीं, कोई नहीं।)
बता रहे थे जब वह सज्जन
दाढ़ी और कम्बल में तहाकर शोक
कि वह जितना हो उससे प्रकट कहीं ज्यादा हो।
तो उनके चेहरे से एक-दो दफा
टपकी थोड़ी बेबसी
थोड़ा काइयांपन झप से फोटाग्राफर के आगे
वह फोटो में आए न आए
मगर जमीन पर चुआ
तो लपककर किसी ने उठाया...
हाय-हाय।
यह तो थी सड़ी हुई लार छद्म मार्क्सवाद की
बेतरह बदबू मारती
यह तो था सीला हुआ नारा (हत्यारा।)
यह तो था चरित्र चौपट चहुंमुखी
सर्वहारा ?...बेचारा।।
हाय-हाय इसमें कहां शर्म ?
यह तो था बड़े करीने से संवारा
ओढ़ा-बिछाया हुआ शोक।
(जैसे रेशमी शालों में लिपटे गरीब-हितकारी लोग।)
बोले एक और जांबाज
कि गोरख तो है मेरा बहादुर दोस्त
रणक्षेत्र में काम आए उस वीर के लिए
कैसा दुख कैसा शोक
चलिए कामरेड हम सुनाएं उसी का गाना तराना
और दो नसेनियां इधर दो उधर टिकाए रिकार्ड चालू
‘कि गुलमियां अब न बजइबे...’
यों था मिलने का महापर्व वहां
(खूब ले-दे थी।)
उनके लिए जिंदा से मुर्दा हुआ एक आदमी
ज्यादा कीमती था
मरकर भी जिंदा जो गोरख था
उसी को अब वो ‘गोरख जी...गोरख जी’
कहते थे
जब जिंदा था-
उसे भरी दोपहर के भारी सन्नाटे में नंगे पैरों
क्रांति करते छोड़
ये अपने-अपने कूलरों में दिए पांव
पालिश किए किवाड़ों में छिपे थे
(रात-दिन
जन-जनतावादी चिंतन का थोक उत्पादन।
लगातार-कार्य-व्यापार...राष्ट्रीय सेमिनार ...
बड़े गद्दे बड़ा नाम बड़ा ठाठ।)
चिंतन के बारीक नशे में धुत्त
पालिश किए चेहरे
उन सिद्धांतियों के अब नंगे थे
नंगे थे सारे वाद-विवाद-अतिवाद के इलीट प्रोफेसर
मंच पर
लाइन में कवायद करते
पसीना छोड़ते विद्वान...
और वहां जो भी था कोई एकाध
छोटा-मोटा गोरख
(उस का भाई)
टांगों में सिर दिए बैठा था...
उदास।
तभी किसी ने कहा
कि उसका शव दर्शनार्थ रखा जाए
उसकी मिट्टी को सब छुआएं माथा
चढ़ाए हार
कि जिसे मिट्टी बनाने वाले
वहां मौजूद थे
और जो कभी एक जिंदा गोरख था
‘पार्टनर । पार्टनर। कहता लम्बी प्रेममयी
भुजाओं में भींच लेता
वह मर चुका था कभी का-
इसलिए कि उसके खाली-खाली
मृथा उजाड़ में
(... उस गंधाते झाड़ में।)
कभी कोई झांकने न आया था
जब वह अकेला था-बहुत अकेला
टूट-टूट कर मर रहा था
लड़ते हुए खुद से-
निहत्था
लहूलुहान।
मंच से गंभीर शोक बह रहा था
सिर से सिर मिलाए विद्वानों का
(पसीने की धाराएं बनकर!)
तो सभा में
कोई एक था जो हंसा
मैंने देखा कि वो
हंसा एक नीम पागल बीहड़ हंसी
चेहरा सुर्ख आग...कि जैसे सुल्फे की लौ।
X X X X X
रात सपने में नजर आया
अपना ही रस्सियों में कसा शरीर
अपनी ही लोथ फूली हुई
बटन टूटी शर्ट
झूलती एक तरफ...
सुबह गड्ढे में धंसी आंखों ने पूछा
शर्म से
नाराजगी से
अविश्वास से
-गोरख क्या तुम सचमुच चले गए।
मगर गोरख तो वहां था ही नहीं
(न मैं!)
तो जवाब कौन देता ?