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लड़ते हुएः बीसवीं सदी का आखिरी कवि / प्रकाश मनु

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तुम चिकने, आश्वस्त मुख
रंगीन गाल, संवरे बालों के व्यक्तत्व-धनी
ऊपर की राह पर टिकी निगाहों
से झरती
समझदारी के साथ
देखते ही मुसकराहट
की कृपा से मुझे
-देखो, मुझे देखो, ऐसे सफल हुआ जाता है
यही है एक राह...समझे !
और बड़ी नफासत से हिलता है हाथ।

हिलाकर हवा में हाथ
चले जाते हो आश्वस्त कि आज नहीं तो कल
आऊंगा ही तुम्हारे रस्ते !
(जब बिकने लगूंगा सस्ते-बहुत सस्ते में !)

इधर मैं । लगभग एक चिथड़ा शरीर
लगभग बुझी आंखें । घिसा माथा
गंदे मुख से मक्खियां हटाता
रिसते दुख की प्रतिहिंसा से करना चाहता
हूं प्रतिकार
तो भी नहीं कर पाता

तब कोशिश करता हूं इतनी कि बस
किसी तरह तुम्हारी सफलता की चौंध
तोड़ न जाए मुझे कहीं-
जो अपने तमाम घमासान, क्रोध और नर्वस
डिसआर्डर के बाद भी हूं अभी जिंदा !

मेरा विक्षिप्त दुख कहीं तुम्हारे बड़े सुख से पड़ न जाए छोटा
सोचकर उसे
ओैर खुद को बचाने की
संपूर्ण चेष्टा में लग जाता हूं-
अधजले शरीर के रोष से बेचैन !

यों !
इस अधजले शरीर की निर्व्याज बेचैनी में
कुछ नहीं रहा अब । आंखों में
सिवा
झुलसे हुए पानी के ।
फिर भी, फिर भी
लडूंगा आखिर तक
आजन्म
सब कुछ लगाकर दांव पर
ईमानदारी के ।

देखूंगा मरकर भी कि
कौन होगा अधिक शानदार
कौन अधिक दीप्त-
तुम्हारा सफल, सफलतर जीवन
एकांत मेरी मौत ?

फिलहाल तो मेरी एक कामरेड दोस्त के शब्दों में-
‘तुम जाओ अपने बहिश्त में
मुझे अपना दोजख प्यारा है !’