भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इरोम चानू शर्मीला / अरुण श्री

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:26, 6 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण श्री |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक ठहरे समय में दौड़ रहा है देश या भाग रहा है शायद।
उन्ही रास्तों से गुज़रता है बार-बार -
जहाँ फैला हुआ निर्दोष खून तरसता है गवाहियों के लिए,
जहाँ कुछ मुट्ठी भींचे लड़कियाँ कपडा नहीं, नारा पहनती हैं,
जहाँ शादी की उम्र में एक लड़की छोड़ देती है रोटी खाना।
लेकिन देश चुपचाप गुजर जाता है हर बार।
बोला तो खैर अब तक नहीं,
और परिणाम ये -
कि आज ‘सरकार’ लगभग पर्यायवाची शब्द है ‘देश’ का।
अब सरकार तय करती है देश के जरुरी मुद्दे।

देश के पास वैसे तो और भी जरूरी मुद्दे हैं भूख के सिवा।
लेकिन -
भूख को जरुरी बनाता है पेट-वोट का समानुपाती व्यवहार।
सरकार समझती है भूख और भजन के बीच का सम्बन्ध।
और सुना तो ये है -
कि देश वाकई गंभीर है भूख से होने वाली मौतों के प्रति।
एक लड़की की भूख पर सरकार की नज़र रहती है बराबर।
 
दरअसल गलत है भूख से मौत की अवधारणा ही।
कथित तौर पर भूखे मरने वाले दोषी होंगे आत्महत्या के।
इस देश में तो जो छोड़ देता है रोटी खाना -
उसकी नसों में नियमित रूप से भरा जाता है ग्लूकोज,
नाक में नली घुसेड़ जबरन उड़ेले जाते हैं पौष्टिक पेय।

खैर,
देश तो होता ही महान है, महान होती है उसकी सेना भी।
और पानी में रहते हुए -
कानून भी नहीं बोलता मगरमच्छ और पानी के विरुद्ध तो।
एक कवि क्या कर लेगा बोलकर,
और क्या कर लिया सेना की छाया में रहती लड़की ने भी?

रसोई और शौचालय के बीच बसे इस देश के कई घरों में -
लगभग इक्कीस ग्राम की बनती हैं रोटियां।
और कितना अजीब है कि कई सालों से बिना रोटी खाए -
इक्कीस ग्राम से कहीं अधिक है उसकी आत्मा का वजन।
पानी पीकर पानी के लिए लड़ती हुई लड़की प्रमाण है,
कि इक्कीस ग्राम के बराबर पानी का वजन -
कहीं अधिक होता है इक्कीस ग्राम की ही रोटी से।

इस संक्रमित-दुर्बल समय के शोर से शक्तिशाली उसका मौन।
एक सभ्यता का नाम है ‘इरोम चानू शर्मीला’।
देश का कानून उसे असभ्यता के अपराध का दोषी मानता है।