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तुम्हारे बिना एक दिन / लोकमित्र गौतम

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कई सच इतने बड़े होते हैं
कि मुहावरों की मुट्ठी में भी नहीं अंटते
उपमाओं की गिरफ्त से छिटक जाते हैं
इसलिए अगर मैं कहूं
तुम्हारे बिना मुझे एक दिन
कई प्रकाशवर्षों से भी बड़ा लगा
तो इसे झूठ मत समझना
चाहत की अनंतता के सामने
ब्रह्मांड बहुत छोटा है
अगर मैं कहूं तुम्हारे बिना
मेरा एक दिन
पहाड़ जैसा गुजरा
तो मान लेना कि यह पूरे सच का
महज एक लाखवां हिस्सा भर है
पूरा सच तो मैं ही जानता हूं
कि कैसे गुजरा तुम्हारे बिना पूरा एक दिन
शायद इसलिए मैं उन लोगों से
कतई सहमत नहीं
जो भावनाओं का
तर्जुमा करने का दावा करते हैं
मेरा दावा है स्टीरिओफोनिक तकनीक का
कोई भी चमत्कार
मेरी फुसफुसाहटो को नहीं सुन सकता
सुन भी लिया तो समझ नहीं सकता
जिसका तुम पलक झपकते जवाब दे देती हो
समझदारी कुछ भी दावा करे
लेकिन कोई भी समझदारी
चौंकने की आदत को
हमेशा के लिए खत्म नहीं कर सकती
इसीलिए लाख समझदार होने के बावजूद
मैं
कान में पड़ने वाली हर आवाज पर चैंका
चाहे वह आवाज सब्जी बेचने वाले की रही हो
या
कबाड़ी वाले की
मैंने उसे तुम्हारी हाय! गुड मॉर्निंग ही सुना
यह जानते हुए कि जहां मैं हूं
वहां तुम नहीं आओगी
और जहां तुम हो
वहां मैं नहीं पहुंच सकता
फिर भी मैं तुम्हें हर आवाज में
ढूंढ़ता रहा
हर साये में तलाशता रहा
तुम्हारे बिना
बड़ी बदहवासी में गुजरा मेरा एक दिन
लोग कह सकते हैं
समय के कलेंडर में
आखिर क्या कीमत है एक दिन की
मैं कहूंगा समझा जाए तो बहुत कुछ
न समझा जाए
तो कुछ भी नहीं
एक दिन में
तख्त उलट जाते हैं
एक दिन में
आप हमेशा के लिए किसी के हो सकते हैं
एक दिन में
देश आजाद हो जाते हैं
और कौमें गुलाम हो जाती हैं
न जाने कैसे कैसे ख्यालों में गुजरा
तुम्हारे बिना मेरा एक दिन...