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संयोग से नहीं मिली तुम / लोकमित्र गौतम

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संयोग से नहीं मिली तुम
मैं चाहूं तो अपनी बात
यूं भी कह सकता हूं
कि मुहब्बत और जंग में
सब कुछ जायज है
यह ढंग
बात को अर्थ भी देगा
और अंदाज भी
लेकिन माफ करना
मैं चापलूसों द्वारा बेदम कर दिये गए
इस मुहावरे की पीठ पर
नहीं चढंूगा
दूसरे की जुबान से
अपने दिल की बात नहीं कहूंगा
क्योंकि मैंने तुम्हें अक्षर अक्षर रचा है
अपनी पहली कविता की तरह
मैंने तुम्हें किरचे किरचे गढ़ा है
आखिरी मूरत की तरह
क्योंकि मुझे मालूम था
तुम्हारी खूबसूरती देखकर
बादशाह मेरे हाथ काट ही लेगा
मैंने तुम्हें आरती और अजान की तरह
गुनगुनाया है
ओ! मेरी मुहब्बत की नशीली धुन
सुन!
तुम मुझे संयोग से नहीं मिली
मैंने बहुत कोशिशें की हैं तुम्हारे लिए
फिर पाया है तुम्हें
हां, ये जरूर कहूंगा
तुम मुझे उम्मीद से ज्यादा मिली
बहुत ज्यादा
बल्कि कहूंगा बहुत ज्यादा से भी बहुत ज्यादा
मैंने तो बस चंद बूंदो की
ख्वाहिश की थी
मेरी भोली बदरिया
तुम तो झूमकर
पूरी की पूरी बरस गई मुझपे
मैं बगीचे की सरहद पर खड़ा
कनेर
तुम्हारा शुक्रिया कैसे अदा करूं
तुम्ही से कह रहा हूं
हां, तुम्ही से
सुन पगली, तुम्ही से
सुलझा ये मेरी उलझन
क्योंकि मैं कभी नहीं मानूंगा

कि तुम्हारे इस तरह
उमड़ घुमड़कर बरसने के पीछे
किसी पश्चिमी विक्षोभ का कमाल है
या
अचानक बने
हवा के किसी कम दबाव वाले क्षेत्र का
अथवा चक्रवाती तूफान का
नहीं ऐसा हरगिज नहीं है
ये सच है
मैंने तुमसे
इस तरह बरसने की उम्मीद नहीं की थी
फिर भी तुम मानसून की झड़ी नहीं हो
कि बरसना ही था तुम्हें
तुम मुहब्बत की वह कड़ी हो
जिसे मैंने
दिन रात एक करके जोड़ा है
तुम संयोग से नहीं मिली मुझे
मैंने तुम्हें बहुत कोशिशों से पाया है
मैं देखने की शुरुआत से
देखने की सीमा तक
तपता हुआ रेगिस्तान था
मदारों और नागफनियों से भरा
मेरी सुप्त सलिला
तुमने मुझे
लहराता हुआ दरिया बना दिया
अब ये साहिल
तुम्हारा शुक्रिया कैसे अदा करे
मैं दिन रात यही सोचता रहता हूं
गुमशुम गुमशुम
क्योंकि
तुम सगर पुत्रों की नियति नहीं
मेरा भगीरथ प्रयास हो
तुम मुझे महज
जटाओं के खोल देने से नहीं मिली
मैंने बहुत तपस्या की है तुम्हारे लिए
फिर पाया है तुम्हें
संयोग से नहीं मिली तुम