भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तीनों बन्दर महा धुरन्धर / शेरजंग गर्ग

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:25, 14 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शेरजंग गर्ग |संग्रह= }} {{KKCatBaalKavita}} <poem> ग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गाँधी जी के तीनों बन्दर
पहुँचे चिड़ियाघर के अन्दर
तीनों निकले महा धुरन्धर !

एक चढ़ाए बैठा चश्मा
देख रहा रंगीन करिश्मा,
अच्छाई कम, अधिक बुराई
भले-बुरों में हाथापाई।

ख़ूब हुआ दुष्टों से परिचय
मन ही मन कर बैठा निश्चय,
दुष्ट जनों से सदा लड़ेगा
इस चश्मे से रोज़ पढ़ेगा।

दूजा बैठा कान खोलकर
देखो कोई बात बोलकर,
बुरा सुनेगा, सही सुनेगा
जो अच्छा है, वही सुनेगा।

गूँज रहा संगीत मधुर है
कोयल का हर गीत मधुर है,
भला-बुरा सुनना ही होगा
लेकिन सच चुनना ही होगा।

और तीसरा मुँह खोले है
बातों में मिसरी घोले है,
मीठा सुनकर ताली देता
नहीं किसी को गाली देता।

मोहक गाना सीख रहा है
वह काफ़ी ख़ुश दीख रहा है,
नेकी देख प्रशंसा करता
लेकिन नहीं बदी से डरता।

आया नया ज़माना आया
नया तरीक़ा सबको भाया,
तीनों बन्दर बदल गये हैं
तीनों बन्दर सँभल गये हैं।