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जानकी रामायण / भाग 5 / लाल दास

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चौपाई

सीता जन्म लेल जेहि काल। से कारण सुनू भारद्वाज॥
पूर्व काल द्विज कौशिक नाम। त्रेता मध्य रहथि गुणधाम॥
गानरत छल दोसर नाम। विष्णु भक्त जानथि भल साम॥
सतत हरिक परिचर्य्या करथि। तनिके भजन गान अनुसरथि॥
भक्ति सहित बैसथि हरिधाम। गावथि नित्य ताल युत साम॥
वीणा लय रागक स्वर योग। गान करथि कय विविध प्रयोग॥
द्विज पद्माक्ष सुखद सुनि गान। अन्न वस्त्र तनिकाँ देथि दान॥
सपरिवार कौशिक उत्साह। तेहि सौँ करथि नित्य निर्वाह॥
द्विज क्षत्री वणिकादिक सात। कौशिक शिष्य रहथि विख्यात॥
तनिकहु पुनि से द्विज धनमान। करथि अन्न वस्त्रे सनमान॥
सभजन भोजन करथि हविष्य। गान करथि कौशिक सह शिष्य॥
हरि मन्दिरहि करथि सभ गान। आबथि सुनय अनेक महान॥
वैद्य एक तहँ मालव नाम। करथि दीप माला तेहि ठाम॥
भार्य्या तनिक मालती नाम। गोमय सौँ नीपथि हरि धाम॥
नित्य सुनथि दम्पति हरिगान। अति सन्तुष्ट रहथि भगवान॥
ब्राह्मण कुशस्थलीक पचास। अयला करय गान सहबास॥
कौशिक करथि विष्णु गुण गान। सीखथि सुनथि सकल मतिमान॥
प्रियकर गान सुनथि सभ लोक। पाबथि ब्रह्मानन्द अशोक॥
कौशिक गान ख्यात भरि देश। से सुनि अयला तहँक नरेश॥
परम क्रूर से नृपति छलाह। हरि चर्चा लगयिनि अधलाह॥
अपने सुयश गीति से सुनथि। अपनहि काँ ईश्वर मन गुनथि॥

दोहा

कौशिक काँ से कहल नृप, शिष्य सहित अहँ आज।
करिय हमर गुण गान ई, सुनता सकल समाज॥

चौपाई

कौशिक कहल कथा निर्भीक। महाराज कहलहु नहि नोक॥
हमर वचन रसनाक स्वभाव। हरि बिनु आनक गुण नहि गाव॥
हरि चर्चा हरि यश बिनु आन। नहि आजन्म सुनल ई कान॥
देलनि कौशिक उत्तर जेह। शिष्यो तनिक महल भल सैह॥
श्रोता गायक जतेक छलाह। निस्पृह नृपसौँ सभ बजलाह॥
हरि गुणगान छोड़ि हम आन। नहि गाओल नहि सुनलहु कान॥
हमरा सबहि कयल दृढ़ नेम। हरि गुण गायब सुनब सप्रेम॥
भ्रमहु न आनक गायब गीति। प्राण जाय बा रहय समीति॥
उत्तर सुनि नृप कोपित भेल। अनुचर गण काँ आज्ञा देल॥
सभ मिलि करह हमर यश गान। देखब के नहि सुनयिछ कान॥
से सुनि नृपतिक गायक लोक। गाओल उच्च स्वर बिनु रोक।
सुनि अनुचर कृत गुण गान। मुनल कान तँह सकल महान॥
से देखि नृप तँह कयलनि जोर। धरह सबहि काँ गावह शोर॥
कौशिक आदि सकल सद्धत्ति। दुखित भेला बुझि तनिक कुवृत्ति॥
सभ जन मनमे कयल विचार। मख न करब कथा स्वीकार॥
रसना हरिगुण गाबि पवित्र। सुनब कोना हम हिनक चरित्र॥
ई विचारि काटल जिह्वाग्र। रहत न जीभ न बजब समग्र॥
कर्ण रन्ध्रमे ठोकल शंकू। भजथि मनहिमन हरि गुण अंक॥
देखि तनिक हठ नृप खिसियाय। धन लय देल निकालि हटाय॥
कयल उपद्रव तनिक अनेक। दया शुन्य से नृप अविवेक॥
हरिजन कौशिक आदिक लोक। शठ नृप कृत पाओल बड़ शोक॥

दोहा

करयित हरि सुमिरन सबहि, उत्तर दिशि गेलाह।
किछु दिन रहि सहि सुख विपति, ततहि कयल निर्वाह॥

चौपाई

हरि लखि तनिक अलौकिक प्रीति। देल प्रसन्न सुगति भल रीति॥
लय आयल हरिदूत विमान। परम विलक्षण सुखद निदान॥
तेहि पर चढ़ि चढ़ि सभ बैकुण्ठ। कौशिक आदि गेलाह अकुण्ठ॥
द्वारपाल गण हरितह आबि। कहलन्हि वार्त्ता अवसर पाबि॥
सुनितहि विष्णु कहल आनन्द। कतय हमर छथि भक्तक वृन्द॥
द्वारिका कहलनि जगदीश। लाबह सभकाँ झट एहि दीश॥
ई सभ हमर परम प्रिय प्राण। कयल सप्रीति बहुत गुण गान॥
बड़ साहस सभजन मिलि कयल। तनिक हेतु शुभ फल अछि धयल॥
सामीप्पक सुख सभ काँ देब। अप्पन थिकथि सन्निधि कय लेब॥
सुनि दौड़ल सभ पार्षद लोक। सादर लयला क्यो नहि टांक॥
कौशिक आदिक परमानन्द। विष्णु भवन अयला स्वच्छन्द॥
पौलनि हरि दर्शन तेहिठाम। कयलनि सभ जन दण्ड प्रणाम॥
स्तुति कयलनि पुनि भक्ति विधान। सुनि प्रसन्न भेला भगवान॥
सभकाँ बूझि विष्णु निज दास। दया दृष्टि निज कयल प्रकाश॥
आशिष पृथक-पृथक पुनि देल। शब्द महान तकर भय गेल॥
कि कहब विमुक मनक उतकर्ष। सभसौं मिलथि हृदय बड़ हर्ष॥
वत्स हेड़ायल पाओल गाय। तेहिना मिलथि विष्णु हरषाय॥
तखन कहल ब्रह्मा सौं विष्णु। कौशिक गण बड़ भक्त सहिष्णु॥
सुख अनन्य सभ काँ हो वेश। करथु हमर तट सतत प्रवेश॥
ककरहुँ कतहु होइनि नहि रोक। अहँ कहि देब बुझय सभ लोक॥
ई कहि पुनि कौशिक सौ कहल। हमर भक्ति अहँकाँ बड़ रहल॥
गाओल नित्य अहाँ भल गीति। हमरामे राखल बड़ प्रीति॥
सहल कष्ट राखल भल प्रेम। छोड़ल नहि निज भक्तिक नेम॥
हम आनन्द भेलहुँ सुनि गान। दै छी हम अहँ काँ वरदान॥

दोहा

अपन शिष्यगण लय अहाँ, धय पुनि अपन शरीर।
दिगवल नाम गणाधि पति, होउ सुखी मति धीर॥

चौपाई

हमर निकट अहँ सदा सलोक। आयल करब हयत नहि रोक॥
परमानन्दक सुख हो प्राप्त। गान प्रसाद अहाँ बड़ आप्त॥
तखन वैद्य सौं कहलनि विष्णु। हे मालव अहँ परम सहिष्णु॥
अहँ दम्पति मिलि सेवा कयल। हमर हेतु मन धीरज घयल॥
हरि मन्दिर नीपल देल दीप। तकर फलेँ रहु हमर समीप॥
सामिप्यक सुख दुहु काँ भेल। सुर दुर्लभ सुख हम दय देल॥
हे पद्माक्ष धन्य अहँ आज। कयल हमर भक्तक बड़ काज॥
अन्नदान कयलहु सविधान। सुनल सप्रीति हमर यश गान॥
हम प्रसनन द छी वरदान। धनपति होउ बढ़त बड़ मान॥
ई ब्राह्मण गण राखल प्रीति। सुनलन्हि हमर गान भल रीति॥
आनक गुण सुनलनि नहि कान। काठ शंकु ठोकल वरु कान॥
कयलनि सभ जन भक्तिक नेम। सहि दुस्सह दुख राखल प्रेम॥
होथु अमर सुख करथु सदाय। सुनथु गान हमराा लग आय॥
एहि विधि पाबथु सभ देवत्त्व। हमर भजन फल लाभ महत्त्व॥
जे जत करत हमर गुण गान। अथवा सुनत जुड़ओत कान॥
हमर भजनमे राखल प्रीति। से सद्गति पाओत एहि रीति॥
जत तप ब्रत मख पूजन दान। थिक सद्यपि प्रियकरक विधान॥
कालेँ तेहि सौं होइछ प्रीति। सद्यह प्रीति करे अछि गीति॥
हमर प्रसन्नक सुलभ उपाय। गाबओ हमर सुयश मन लाय॥
रहता जौं पापहु सौं युक्त। निश्चय भय जयताहे मुक्त॥
ई कहि सभ जन काँ बजबाय। देलनि सुख सामीप्य सदाय॥

गीतिका

एहि प्रकार उदार हरि सभ भक्त काँ सुख सम्पदा।
सामीप्य दय निज लोकमे सारुप्य कय राखल सदा॥
परम दुर्लभ सुख सकल निज भक्त काँ नित्य देथि से।
निज पाणि पंकज राखि तनि शिर सतत लालन करथि से॥

दोहा

चंचरीक चित चतकरू, चंचलता काँ त्यागि
हरिपद पँकज मधुर मधु, पीब सहित अनुराग॥