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जानकी रामायण / भाग 17 / लाल दास

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चौपाई

स्मरणे अछि रामक अवतार। कति कपटिक देखल व्यापार॥
अयला रामचन्द्रक बन जखन। सूर्पणखाकाँ देखल तखन॥
अति सुन्दरी बनलि से ब्याज। रामक धर्म्म बिनाशय काज॥
सीतापर दौड़लि मुह बाय। काटल नाक लखन खिसियाय॥
लय गेल विभुकाँ विपिन भुलाय। नचयित कुदयित रूप देखाय।
धय धनु शर रघुवर बन बीच। मारल ततय मुइल मारीच॥
कालनेमि पुनि असुर प्रधान। बड़ मायावी छल बलवान॥
बनि मुनि वेष हिमालय जाय। पवनतनयकाँ देल भुलाय॥
बुझलनि जखन प्रपंच प्रचण्ड। देल पवनसुत प्राणक दण्ड॥
महिरावण पुनि कपट स्वरूप। हरलक रामलखनकाँ चूप॥
लय गेल मायासौँ पाताल। मारल पवनतनय तेहि काल॥
एहि विधि देखल कपट कतेक। भुइल सकल खल रहल न एक।
कहह पूतना सत्य सुबयन। नहि तौँ जयबह कालक अयन॥
कहल पूतना कुच विष धयल। मुक्ति हेतु हरिसौं अरि कयल॥
से सुनि गरुड़ भेला अति क्रुद्ध। दुष्टा सौं कयलनि कति युद्ध॥
खगपति देह भयंकर कयल। एक ग्रास दुष्टाकाँ धयल॥
से दुष्टा खगपति मुख जाय। बहरायिल नाकक पथ पाय॥
पुनि फनलाह गरुड़ आकाश। धयल घूरि पुतनाकाँ ग्रास॥
सूक्ष्म रूपसौँ पुनि मुह जाय। चलि आयिलि कानक पथ धाय॥
गरुड़ प्रभुत कयलनि कय बेरि। धयल पूतनाकाँ बेरि-बेरि॥
सुतरल नहि गरुड़क व्यापार। बढ़ल पूतनाकाँ हंकार॥
यत्र-कुत्र कटु बाजलि जानि। सुनि खगेशकाँ भेल गलानि॥
स्मरण कयल श्रीकृष्णक चरण। देल भार निज विश्वक भरण॥
गरुड़ तखन दुष्टाकाँ धाय। निज तनसौँ धय देल दबाय॥
पड़ि गेल तेहिपर विश्वक भार। त्राहि-त्राहि से कयल पुकार॥
मन-मन कृष्णक चरण पुनीत। ध्यान कयल कहि विनय विनीत॥
कृष्ण प्रसन्न भार निज लेल। फूल-समान गरुड़ तन भेल॥
से निशिचरी तखन अवहेलि। पकड़ि गरुड़काँ देलक ठेलि॥
बुझल गरुड़ नहि हरि व्यापार। कृत अहमित मनमे विस्तार॥
उड़ि आकाश गेला कय बेरि। धयल पूतनाकाँ बेरि-बेरि॥
जौँ जौँ गरुड़ बढ़ाबथि लोल। बड़य पूतना देह अलोल॥
कयल पूतना तन विस्तार। कति योजन धरि लेल पसार॥
तखन गरुड़ क्रोधेँ अकुलाय। ग्रास कयल निज चंचु बढ़ाय॥
आधा देह ग्रस्त कय लेल। आधा तन बाहर रहि गेल॥
गरुड़क कंठ भेल अवरुद्ध। हारल कयल विसर्जन युद्ध॥
विगतश्वास भय गेल अज्ञान। तखन कयल दुष्टा प्रस्थान॥

दोहा

मायासौंँ पुनि पूतना बनि गेल दोसर देह।
चललि मुदित मनहरि निकट तकयित नन्दक गेह॥

चौपाई

आयल ततय महाविष सर्प। मृतक देहकेँ धयल सदर्प॥
गरुड़क मुहसौँ से खिचि लेल खगपति प्राण-त्राण कय देल॥
अहिकाँ अहि भुक् अभय प्रदान। देल कयल कति विधि सन्मान॥
भेल गरुड़काँ मन विश्वास। मुइलि पूतना सर्पक ग्रास॥
ई मन मानि गेला हरि धम। कयलनि गरुड़ ततय विश्राम॥
एतय पूतनाकाँ सभ देव। विस्मय मानल देखि अतेब॥
कृष्ण-बधक कयलनि उद्योग। नेत्र-देवता कयल वियोग॥
लगल पूतना नयन कपाट। चलय न चरण सुझय नहि बाट॥
बैसि रहल कय कृष्णक ध्यान। भेल तखन सभ तत्त्वक ज्ञान॥
नेत्रदेवताकाँ धिक्कार। लागलि करय कहय कय बार॥
किअय नयनसौं भेलहुँ फराक। बुझल कोन अपराध विपाक॥
देव कहल तोँ छह बड़ि दुष्टि। हरि मारय जाइत छह रुष्टि॥
जे करयित छथि विश्वक त्राण। तोँ तनिके हरबह गय प्राण॥
तैँ हम दृगसौं भेलहु फराक। नहि सुझतहु कतबो किय ताक॥
से सुनि पुतना हँसलि भभाय। कहल अहँक गेल ज्ञान भुलाय॥
कृष्ण थिकथि ईश्वर जग जीति। तनिक बधक भेल कोना प्रतीति॥
हम तनिकाँ विष देब पिआय। हरता तखन प्राण खिसियाय॥
तखन हयत हमरा धु्रव मुक्ति। पापीकाँ नहि दोसर युक्ति।
सुनि दगदेव प्रसन्न भेलाह। नयन अयन पुनि पैसि गेलाह॥

दोहा

लागल सूझय दुहु नयन सुखसौँ पूर्वक रीति।
चललि पूतना मुदित मन कृष्णनिकट निर्भीति॥

चौपाई

बनलि यशोदा बहिनिक वेष। नन्द-भवन गेलि हरष विशेष॥
निज नैहरसौँ आगत जानि। देल यशोदा बैसक पानि॥
कुशल क्षेम जखना भय गेल। विहसि कृष्णकाँ से लय लेल॥
गेलिह यशोदा बालक त्यागि। गृह-परिचर्यामे गेलि लागि॥
तखन पूतना जानि एकान्त। अंचलसँ झाँपल श्रीकान्त॥
कुच-विष से देल पान कराय। शोषल कृष्ण प्राण मुसुकाय॥
छटपटाय से बाहर आबि। खसलि अचेत परम गति पाबि॥
पर्वत-सन तन अति विस्तार। देखि कयल सभ हाहाकार॥
भेल पूतना-बध एहि रीति। ब्रजजन गाबथि मंगल गीति॥
पूर्व जन्म पुतना छलि जैह। परिचय तकर कहै छी सैह॥
बलिक बहिनि रत्नावति नाम। वामन रूप देखि अभिराम॥
मन-मन हरिसौँ कहल मनाय। एहने शिशु हम गोद खेलाय॥
से पीबथि कुच हमर निदान। भव - सागरसौँ पाबी त्रान॥
मन-मन हरि कयलनि स्वीकार। सैह भेलि पुतना अवतार॥

दोहा

सुनल पूतना-बध एतय चिन्तित कंस नरेश।
तृणावर्तकाँ कयल झट कृष्ण-वधक आदेश॥