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मैं आदर्शहीन हूँ / दयानन्द पाण्डेय

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मैं चरित्रहीन हूँ
और चाहता हूँ कि लोग मुझे चरित्रवान मानें

मैं कायर हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे बहादुर मानें

मैं नपुंसक हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे पौरुष का प्रतीक मानें

मैं जातिवादी हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे जाति विरोधी मानें

मैं देशद्रोही हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे देशभक्त मानें

मैं महाभ्रष्ट हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे ईमानदार मानें

मैं कम्यूनल हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे सेक्यूलर मानें

मैं गद्दार हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे भरोसेमंद मानें

मैं बेवफ़ा हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे वफ़ादार मानें

मैं लंपट हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे सदाशय मानें

मैं समाज का दुश्मन हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे अपना दोस्त मानें

मैं हिंसक हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे अहिंसक मानें

मैं कुत्ता हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे शेर मानें

मैं दानव हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे देवता मानें

मैं पतन की पराकाष्ठा हूँ
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे उन्नति का सबब मानें

मैं वह सब कुछ हूँ
जो नहीं होना चाहिए

मैं रावण भी हूँ, कंस भी, भस्मासुर, दुर्योधन और शकुनि भी
लेकिन चाहता हूँ कि लोग मुझे राम और कृष्ण की तरह मानें
शंकर भी, युधिष्ठिर और अर्जुन भी
और मुझे पूजें भी

मुझे बेहद खुशी है इस बात की
कि
सब कुछ जानते हुए भी लोग मुझे वैसा ही मानते हैं
जैसा कि मैं उन से अपेक्षा करता हूँ

जानते हैं कि क्यों

मेरे पास पैसा है
मेरे पास ताकत है
सत्ता भी

सो मैं जैसा चाहता हूँ
लोग मेरे बारे में
वैसा ही सोचते हैं

वैसा ही सोचेंगे

यह मीडिया, यह लेखक, यह कवि
यह टिप्पणीकार, यह इतिहासकार,
यह अफ़सर, यह राजनीतिज्ञ
यह सविधान और यह क़ानून
सब मेरे चाकर हैं

और यह न्यायाधीश भी
वैसा ही फ़ैसला लिखते हैं
जैसा मैं चाहता हूँ

यह सब के सब
जैसा मैं कहता हूँ
वैसा ही सोचते हैं
वैसा ही लिखते हैं
वैसा ही करते हैं

इन सब को मैं सांस देता हूँ
और फांसी भी

लब्बोलुवाब यह कि
मैं आदर्शहीन हूँ, चरित्रहीन भी
लेकिन लोग मुझे अपना आदर्श मानते हैं
माई-बाप, गुरु और भगवान भी

लोग हैं कि मेरे लिए जान दे देना चाहते हैं
दे ही रहे हैं

ऐसा ही मैं चाहता भी हूँ

इतना कुछ जानने के बाद
आप अब भी मुझे नहीं जान पाए

मैं
कार्पोरेट हूँ
कार्पोरेट सेक्टर कहते हैं मुझे
और यह दुनिया मेरी है

यह नदियां, यह पर्वत, यह वन
यह समुद्र , यह रत्नगर्भा धरती, इस धरती की खदाने
यह मनुष्यता
सब मेरे चरण पखारते हैं

आख़िर मैं कार्पोरेट हूँ
शक्ति का नया पुंज, नया मठ
मेरी आरती उतारो मनुष्य,आरती उतारो !
तुम सब मेरे समक्ष हारने के लिए ही उपस्थित हो
अपना सब कुछ हारने के लिए

तुम्हारे बच्चों का कॅरियर, पैकेज और भविष्य
सब कुछ मैं ही हूँ
तुम्हारा देश, तुम्हारा समाज
तुम्हारी चूहा दौड़ का जनक भी

तुम ही तो हो जो
सब कुछ भूल कर
मुझ पर निसार हो
और मैं तुम्हें बिसरा देना चाहता हूँ

पूंजी और पूंजी से और पूंजी बनाने का गणित यही है
कार्पोरेट इसी तरह बहुगुणित होता है
हज़ार प्रतिशत सालाना ग्रोथ क्या ऐसे ही होती है
यह बात भी तुम नहीं जानते

[29 नवंबर, 2014]