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अन्धकार की खोल / देवेन्द्र कुमार

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लो दिन बड़ा हुआ
अन्धकार की खोल फेंककर
सूरज खड़ा हुआ ।

खुलने लगीं दिशाएँ मन में
दूर कहीं आँखों के वन में
आसमान नंगी बाँहों पर
लगता अड़ा हुआ ।

देखो तो इस शाम को भला
अपने में खोई शकुन्तला
आधा-धड़ बाहर, आधा-
ज़मीन में गड़ा हुआ ।

नदी, पहाड़, वनस्पतियाँ हैं
बिस्तर-बन्द मनःस्थितियाँ हैं
नर्म हथेली पर
सब-कुछ
सरसों-सा पड़ा हुआ ।