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उसकी चश्मे-मोतबर तक आ गए / सिया सचदेव
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उसकी चश्मे मोतबर तक आ गए
लफ्ज़ मेरे भी असर तक आ गए
डालियां ख़म हैं फलों के बोझ से
किसलिए पत्थर शज़र तक आ गए
लग रहा है जंगलों को छोड़कर
कुछ दरिन्दे फिर नगर तक आ गए
शेर के सब ऐब आये सामने
जब कभी अहले नज़र तक आ गए
मर गए जो भूख से फुटपाथ पर
सुब्ह की ताज़ा ख़बर तक आ गए
हो गयी अपनी दुआएं भी कबूल
हम तिरी फ़िक़्रो नज़र तक आ गए
ए सिया सांसे मेरी अटकी रही
जब तलक़ बच्चे न घर तक आ गए