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कस लो कलाई, मेरे गाँव! / संतलाल करुण

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कभी पाँव धँसे, टूट गए
खजूर के काँटों-जैसे तीखे
कभी भरतू बाँस की तेल पी हुई
लाठी की मार-जैसे कठोर
मगर मौके पर
कुएँ की दूब-जैसे नरम
मन के जल में झाँकते मेरे गाँव
तुम्हारी मदार के फूलों-जैसी निरभिमान
सोंधी मिट्टी-जैसी ॠतुगंधा
नीम की छाया-जैसी शीतल
बरगद की जटाओं-जैसी धरतीपकड़
बस्ती सरीखी डाल से
सेमल की रूई की तरह उखड़कर
भूख, प्यास, पैसे की
नई कसबिन हवाओं के साथ
मैं उड़ा तो उड़ता ही रहा
पर तुम बिसरे कहाँ, मेरे गाँव!

इस उड़ान में मैं कितना बदला
पर तुम भी कम नहीं बदले, मेरे गाँव!
जैसे झील सूख गई हो
और पानी की जगह पैसा
और मछलियों की जगह भीड़
और कमलों की जगह धूर्त मुखड़े
भर दिए गए हों
नेता, अफ़सर, माफ़िया मछुआरों की भूमिका में हों
मैं और तुम एक-दूसरे से
दूर होते गए मेरे गाँव!
तुम्हारे वे सादगी भरे घर-मुहारे
लौकी-कुम्हड़े के फूलों से लदे छान-छप्पर
काली-डीह के थान
जेठ-बैसाख के दिन
सावन-भादों की बरसातें
रातें पूस-माघ की
पुरुवा-पछुवाँ के झोंके
मचान और पयाल पर सोने का नैसर्गिक सुख
मकई की रोटी, बथुए की दाल
राब का सिखरन, दहेंड़ी की खुरचन
अलस साँझ पीठ पर फिरते
दादी माँ के सुखद खुरदरे हाथ
मुझे याद है, मुझे याद है मेरे गाँव!

मुझे याद है मेरे गाँव!
लट्टू-भँवरे की तरह नाचता
नरकुल-अमोले की पिपिहरी की तरह बजता
गुल्ली-डंडे की तरह व्यस्त
लच्चीडाँड़ी की तरह उल्लसित
किन्तु हड़ा-हड़वाई की तरह
इधर से आया, उधर को गया
तुम्हारा धूसर-मटीला बचपन
जो दीवाली पर फुलझड़ी-सा हँसता-हँसाता
होली पर बाँस की पिचकारी-सा छूटता-रंग बरसाता
तुम्हारी अबोध अभिलाषाएँ
आँखमिचौनी-सी कितनी निश्छल, कितनी सरल होतीं
कुछ दिन के लिए
माटी के छोटे-से घर-घरौंदे में
हाथी-घोड़े तक पालती-पोसतीं
वे कभी गुलता-गुलेल
कभी गोली-गिट्टक, कौड़ी-कंजे की
अपनी दुनिया में बिना किसी का हिस्सा हड़पे
न जाने कितने सपने स्वप्नलोक से उतार लेतीं
तुम अपने नन्हें हाथों में
कभी धनुही-तीर
कभी बीन-बाँसुरी
तो कभी फिरकी के रूप में
आम के पत्ते का सुदर्शन चक्र साधे
गद्गद भाव से निष्काम कैसे तन्मय रहते
मुझे याद है, मुझे सब याद है

मुझे अच्छी तरह याद है मेरे गाँव!
टिकोरे का मौसम
जिसे तुम नमक-मिर्च के साथ गाँठते
महुआरी की मादक गंध
जो दूर से ही मन तक भर जाती
जामुन, बेल, फ़ालसे से
निहाल होती तुम्हारी कच्ची उम्र
आँवले-करौंदे की खटास
जिनसे मुँह कैसे बन-बन जाता
मुँहचढ़ी-मज़ेदार मकोय
जिसे तुम इधर-उधर खोजते फिरते
एक-एक पेंहटुल्ले के लिए
तुम्हारी छीना-झपटी, मारा मारी
डहकाती-लुभाती तितलियों के पीछे मुग्धमन
दूर-दूर तक की धमा-चौकड़ी
केंचुआ देख जी मिचलाना
राम की घोड़ी को छेड़ना
ग्वालिन को गोल होने के लिए तंग करना
मुझे याद है, मुझे अच्छी तरह याद है
मैं तुम्हारी साँसों की कतरनों का पुलिंदा हूँ I

मुझे ख़ूब याद है
तुम धान की जरई के संग कैसे जनम लेते
ज्वार-बाजरे के गाभे से कढ़ती कलँगी के साथ
कैसे किशोर होते
साँवा-काकुन की झूमती बालियों बीच
कैसे जवान हो जाते
लेकिन घाम-बतास, साँझ-सकारे
हल से छूट कुदाल से विश्राम करते
तुम असमय ही कैसे ढल जाते
मुझे ख़ूब याद है पूरी उमर
एड़ी-चोटी एक करता
पसीने-पसीने होता
पेट-अधपेट खेत-खलियानों में
अथ होता, अस्त होता तुम्हारा कठिन जीवन
मैं तुम्हारे दर्द का जीता-जागता टुकड़ा हूँ I

मेरे गाँव! मैं हारिल की लकरी की तरह
अब भी तुम्हें जी रहा हूँ
तुम जैसे सेठे की कलम से
दुद्धी से पुतारे, घोटे-चमकाए
लकड़ी की तख्ती पर
खड़िया से लिखे दूधिया अक्षरों के समान
मेरे भीतर अंकित हो
और मैं भोली नज़रों से तुम्हें पढ़ रहा हूँ
पर तुम कहाँ खो गए
और कहाँ खो गया मैं
तुम्हें किसकी नज़र लग गई
और मुझे किन हरकतों ने पचा लिया
मैं सेमल की रूई की तरह
तुम्हारा बीज लिये-लिये
कब तक उड़ता रहूँ मेरे गाँव!
शहरों के गमले सेमल का बोझ
नहीं सह सकते
और न ही उनकी मिट्टी मुझे रास आएगी I

मेरे गाँव! मैं तुम्हें जीना चाहता हूँ
इससे पहले कि तुम्हारी ओर बढ़ती
शहरों से लिपटी नागफनी
तुम्हारे रहे-सहे अस्तित्व को बींध डाले
मैं तुम्हें सचमुच जीना चाहता हूँ
भरपूर दधिकाँदो के समवेत स्वरों में
हाथी, घोड़ा, पालकी
जै कन्हैयालाल की सारी अनुगूँज
जैसे मेरे कानों में घुल रही है
मेरे भीतर गूलर का एक फूल
जैसे मुखरित हो रहा है
तुम कस लो कलाई, मेरे गाँव!
और मुझे मटकी-फोड़ घोषित करो
लौटा दो मेरा जीवन
मेरी धरती, मेरा आकाश, मेरा मुक्त हास
मैं तुम्हारे जीवन का भटका हुआ हिस्सा हूँ