भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कसान्द्रा / ओसिप मंदेलश्ताम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:58, 31 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=ओसिप मंदेलश्ताम |संग्रह=सूखे ह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: ओसिप मंदेलश्ताम  » संग्रह: सूखे होंठों की प्यास
»  कसान्द्रा

आन्ना अख़्मातवा के लिए

याद करता हूँ कसान्द्रा मैं, जब वे सुन्दर क्षण
तेरे होठों का स्वाद और आँखों का दीवानापन
उत्सवी लगे मुझे अपनी रातों का जागरण
परेशान होता हूँ हालाँकि करके तेरा स्मरण

और दिसम्बर, उन्नीस सौ सत्रह का यह साल
खो दिया है सब कुछ हमने, बहुत बुरा है हाल
किसी-एक को जनता ने लूटा, किया हाल-बेहाल
दूजे ने लूटा ख़ुद को ही लुटा दिया सब माल

कभी जब होगी यहाँ, इस राजधानी में निर्लज्ज
निवा-नदी किनारे पे, स्कीफ़-उत्सव की सजधज
कर्कश संगीत बजेगा, होगा फूहड़ नृत्यों का ज़ोर
सुन्दरी के सिर से खींचेंगे, चुन्नी कुछ पापी घोर

यही है जीवन, तो इस जीवन को मेरा धिक्कार
वन बड़ा-सा लगता है मुझे, यह देश, यह संसार
प्यार किया मैंने तुझे, पर विजय लगे यह लूली
चुभता है जाड़ा इस वर्ष, यह लगे है जैसे सूली

रचनाकाल : 31 दिसम्बर 1917