आन्ना अख़्मातवा के लिए
याद करता हूँ कसान्द्रा मैं, जब वे सुन्दर क्षण
तेरे होठों का स्वाद और आँखों का दीवानापन
उत्सवी लगे मुझे अपनी रातों का जागरण
परेशान होता हूँ हालाँकि करके तेरा स्मरण
और दिसम्बर, उन्नीस सौ सत्रह का यह साल
खो दिया है सब कुछ हमने, बहुत बुरा है हाल
किसी-एक को जनता ने लूटा, किया हाल-बेहाल
दूजे ने लूटा ख़ुद को ही लुटा दिया सब माल
कभी जब होगी यहाँ, इस राजधानी में निर्लज्ज
निवा-नदी किनारे पे, स्कीफ़-उत्सव की सजधज
कर्कश संगीत बजेगा, होगा फूहड़ नृत्यों का ज़ोर
सुन्दरी के सिर से खींचेंगे, चुन्नी कुछ पापी घोर
यही है जीवन, तो इस जीवन को मेरा धिक्कार
वन बड़ा-सा लगता है मुझे, यह देश, यह संसार
प्यार किया मैंने तुझे, पर विजय लगे यह लूली
चुभता है जाड़ा इस वर्ष, यह लगे है जैसे सूली
रचनाकाल : 31 दिसम्बर 1917