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या निशा सर्वभूतानाम्... / राजकमल चौधरी

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पहिने तिरहुत

निन्नक ओसारपर
अधछारल खपडै़ल, सजमनिक लत्ती-
एक्को टा फल नहि, पाते-पात
भिन्नक ओसारपर
ठेहुनियाँ दैत अछि बालक सुकुमार
कतेक पैघ अछि सपनक आङन आ दुआरि
जकरा अथाह अन्हारमे...
टपिक’ औताह
उघारे पसरल आँखि-पकोटक कोहवरमे
(की) बीच गामक इनारपर
औताह?
धूआ नहि छबय साँझ
इजोतक गति घ’ चलि दिय’
धूआ नहि छूबय साँझ कोनो खन
जं गामक रस्ता भोथरयबाक सेहन्ता नहि हो
नूआ नहि छूबय, बाँझ
समयकेर!

तखन बटगमनी

धूआ नहि छूबय बाँझ, भोरकेर बटगमनी
जँ परिछनिकेर, गीत-नादकेर
शंखक ध्वनि, कलरव-पिहकारी, फुसिये विवादकेर
रस्ता भोथरयबाक सेहन्ता नहि हो
एम्हर-ओम्हर जुनि ताकू
थिक ई जंगल माँझ
समयकेर!
धूआ नहि छुबय साँझ।
उमकि रहल अछि बीच घूरमे
गाम भरिक तमसाह
मोन सभक औनायल, गुमकी लाधि लेने अछि
घाट-बाटमे ठाढ़ि भेलि
ओ नाङटि बतही
माथपर धयने गाम भरिक ओ पनही
गुमकी लाधि लेने अछि
नाङटि बतही घाट-बाटमे ठाढ़ि भेल

तकरा बाद डहकन

उमकि रहल अछि बीच घूरमे
ओकर गर्भक शिशु
सात-सात टा!
गाम भरिक तमसाह देहसँ जनमल।
देहसँ जनमल
घाट-बाटमे ठाढ़ि भेलि ओ नाङटि बतही
गाम भरिक ओ पनही।

अन्तमे, समदाउन

अहाँ चल जायब तँ माय हमर नहि कनतीह
हमर भौजी दू दिन अहाँक कथा बजतीह
तेसर दिन हमरा बहिना
खिड़की लग ठाढ़ि भ’ ओहिना सजतीह
अहाँ चल जायब तँ क्यो नहि कानत
हमहूँ नहि कानब
अहाँ चल गेल छी, ई गप्प नहि मानब
नहि मानब!

(मिथिला मिहिर: 13.2.64)