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मुझे मालूम नहीं / गजानन माधव मुक्तिबोध

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मुझे नहीं मालूम
सही हूँ या ग़लत हूँ या और कुछ
सत्य हूँ कि मात्र मैं निवेदन-सौन्दर्य!

धरित्रि व नक्षत्र
तारागण
रखते हैं निज-निज व्यक्तित्व
रखते हैं चुम्बकीय शक्ति, पर
स्वयं के अनुसार
गुरुत्व-आकर्षण शक्ति का उपयोग
करने में असमर्थ।
यह नहीं होता है उनसे कि ज़रा घूम-घाम

आए

नभस् अपार में
यन्त्र-बद्ध गतियों का ग्रह-पथ त्यागकर
ब्रह्माण्ड अखिल की सरहदें माप ले।
अरे, ये ज्योति-पिण्ड
ह्रदय में महाशक्ति रखने के बावजूद
अन्धे हैं नेत्र-हीन
असंग घूमते हैं अहेतुक
असीम नभस् में
चट्टानी ढेर है गतिमान् अनथक,
अपने न बस में।
वैसा मैं बुद्धिमान्
अविरत
यन्त्र-बद्ध कारणों से सत्य हूँ।
मेरी नहीं कोई कहीं कोशिशें,
न कोई निज-तड़ित् शक्ति-वेदना।
कोई किसी अदृश्य अन्य द्वारा नियोजित
गतियों का गणित हूँ।
प्रवृत्ति-सत्य से सच मैं
गलतियाँ करने से डरता,
मैं भटक जाने से भयभीत।
यन्त्र-बद्ध गतियों का ग्रह-पथ त्यागने में

असमर्थ

अयास, अबोध निरा सच मैं।
कोई फिर कहता कि देख लो--

देह में तुम्हारे

परमाणु-केन्द्रों के आस-पास

अपने गोल पथ पर
घूमते हैं अंगारे,

घूमते हैं 'इलेक्ट्रॉन'
निज रश्मि-रथ पर।
बहुत ख़ुश होता हूँ निज से कि
यद्यपि साँचे में ढली हुई मूर्ति में मजबूत

फिर भी हूँ देवदूत

'इलेक्ट्रॉन'--रश्मियों में बंधे हुए अणुओं का

पुजीभूत

एक महाभूत मैं।
ऋण-एक राशि का वर्गमूल
साक्षात्
ऋण-धन तड़ित् की चिनगियों का आत्मजात
प्रकाश हूँ निज-शूल।

गणित के नियमों की सरहदें लाघना
स्वयं के प्रति नित जागता--
भयानक अनुभव
फिर भी मैं करता हूँ कोशिश।
एक-धन-एक से
पुनः एक बनाने का यत्न है अविरत।
आती हू पूर्व से एक नदी,
पश्चिम से सरित अन्य,
संगमित बनती है एक महानदी फिर।
सृष्टि न गणित के नियमों को मानती है

अनिवार्य।

मेरे ये सहचर
धरित्रि, ग्रह-पिण्ड,
रखते हैं गुरुत्व-आकर्षण-शक्ति, पर
यन्त्र-बद्ध गतियों को त्यागकर
ज़रा घूम-घाम आते, ज़रा भटक जाते तो--
कुछ न सही, कुछ न सही
ग़लतियों के नक्शे तो बनते,
बन जाता भूलों का ग्राफ ही,
विदित तो होता कि
कहाँ-कहाँ कैसे-कैसे ख़तरे,
अपाहिज पूर्णताएँ टूटती!
किन्तु, हमारे यहाँ
सिन्धुयात्रा वर्जित
अगम अथाह की।
हमें तो डर है कि,
ख़तरा उठाया ते
मानसिक यन्त्र-सी बनी हुई आत्मा,
आदतन बने हुए अऋतन भाव-चित्र,
विचार-चरित्र ही,
टूट-फूट जाएंगे
फ्रेमें सब टूटेगा व टण्टा होगा निज से।
इसीलिए, सत्य हमारे हैं सतही
पहले से बनी हुई राहों पर घूमते हैं

यन्त्र-बद्ध गति से।

पर उनका सहीपन
बहुत बड़ा व्यंग्य है
और सत्यों की चुम्बकीय शक्ति

वह मैगनेट......
हाँ, वह अनंग है

अपने से कामातुर,
अंग से किन्तु हीन!!

...........................
पुनश्च--
बात अभी कहाँ पूरी हुई है,
आत्मा का एकता में दुई है।

इसीलिए

स्वयं के अधूरे ये शब्द और
टूटी हुई लाइने, न उभरे हुए चित्र

टटोलोता हूँ उनमें कि

कोई उलझा-अटका हुआ सत्य कहीं मिल जाए,
वह बात कौन-सी!!
उलझन में पड़ा हूँ,
अपनी ही धड़कन गिनता हूँ जितनी कि
उतने ही उगते हैं
उगते ही जाते हैं सितारे
दूर आसमान में चमकते लगते हैं सचमुच!

और, वे करते हैं इशारे!!

मैं उनके नियमों को खोजता,
नियमों के ढूंढता हूँ अपवाद,
परन्तु, अकस्मात्
उपलब्ध होते हैं नियम अपवाद के।
सरीसृप-रेखाओं से तिर्यक् रेखा काटकर
लिखा हुआ बार-बार
कटी-पिटी रेखाओं का मनोहर सौन्दर्य
देखता ही रहता
कटे-पिटे में से ही झलकते हैं अकस्मात्
साँझ के झुटमुटे, रंगीन सुबहों के धुंधलके।
उनमें से धीरे-धीरे स्वर्णिम रेखाएँ उभरतीं,
विकसित होते हैं मनोहस द्युति-रूप।
चमकने लगते हैं उद्यान रंगीन
आदिम मौलिक!
गन्ध के सुकोमल मेघों में डूबकर
प्रत्येक वृक्ष से करता हूँ पहचान,
प्रत्येक पुष्प से पूछता हूँ हाल-चाल,
प्रत्येक लता से करता हूँ सम्पर्क!!
और उनकी महक-भरी
पवित्र छाया में गहरी
विलुप्त होता हूँ मैं, पर
सुनहली ज्वाल-सा जागता ज्ञान और
जगमगाती रहती है लालसा।
मैं कहीं नहीं हूँ।