भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे लोग / गजानन माधव मुक्तिबोध

Kavita Kosh से
Sumitkumar kataria (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 14:07, 28 जनवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध |संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गज...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


ज़िन्दगी की कोख में जनमा
नया इस्पात
दिल के ख़ून में रंगकर।


तुम्हारे शब्द मेरे शब्द
मानव-देह धारण कर
असंख्यक स्त्री-पुरुष-बालक
बने, जग में, भटकते हैं,
कहीं जनमे
नए इस्पात को पाने।
झुलसते जा रहे हैं आग में।
या मुंद रहे हैं धूल-धक्कड़ में।
किसी की खोज है उनको,
किसी नेतृत्व की।


पीली धुमैली पसलियों के पंजरवाली
उदासी से पुती गाएँ
भयानक तड़फड़ाती ठठरियों की
आत्मवश स्थितप्रज्ञ कपिलाएँ
उपेक्षित काल-पीड़ित सत्य के समुदाय
या गो-यूथ
लेकर वे
घुसे ही जा रहे हैं
ब्रास्सिए के बस्टवाली उन दुकानों के पास
काफ़े की निकटवर्ती सड़क पर,
चमचमाती ख़ूबसूरत शान के नायलान भभ्भड़ में।


दुतरफ़ा पेड़वाली रम्य किंग्ज़वे में
कि एलगिन रोड नुक्कड़ पर
खरोंचे-मारते-सी घिस-रहे-सी
सौ खुरों की खरखराती शब्द-गति
सुनकर
खड़े ही रह गए हैं लोग।
उनमें सैकड़ों विस्मित,
कई निस्तब्ध।
कुछ भयभीत, जाने क्यों
समूचे दृश्य से मुँह मोड़ यह कहते--
'हटाओ ध्यान, हमसे वास्ता क्या है?
कि वे दुःस्वप्न-आकृतियाँ
असद् है, घोर मिथ्या हैं!!'
दलिद्दर के शनिश्चर का
भयानक प्रॉपगैण्डा है!!
खुरों के खरखराते खुरचते पद-शब्द-समुदाय
सुनकर,
दौड़कर उन ओटलों पर,
द्वार-देहली, गैलरी पर,
खिड़कियों में या छतों पर
जो इकट्ठा हैं
गिरस्तिन मौन माँ-बहनें
सड़क पर देखती हैं
भाव-मन्थर, काल-पीड़ित ठठरियों की श्याम गो-यात्रा
उदासी से रंगे गम्भीर मुरझाए हुए प्यारे
गऊ-चेहरे।
निरखकर
पिघल उठता मन!!
रुलाई गुप्त कमरे में ह्रदय के उमड़ती-सी है।
नहीं आए सत्य जो शिक्षित
सुसंस्कृत बुद्धिमानों दृष्टिमानों के
उन्हें वे हैं कि मन-ही-मन
सहज पहचान लेतीं!!
मग्न होकर ध्यान करती हैं कि
अपने बालकों को छातियों से और चिपकतीं।
भोले भाव की करुणा बहुत ही क्रान्तिकारी सिद्ध होती है।


उपेक्षित काल पीड़ित सत्य के समुदाय
लेकर साथ
मेरे लोग
असंख्य स्त्री-पुरुष-बालक भटकते हैं
किसी की खोज हैं उनको।
अटकना चाहते हैं द्वार-देहली पर किसी के किन्तु
मीलों दूरियों के डैश खिंचते हैं
अंधेरी खाइयों के मुँह बगासी ज़ोर से लेकर
यूँ ही बस देख
अनपहचानती आँखों--
खुले रहते।


गन्दी बस्तियों के पास नाले पार
बरगद है
उसी के श्याम तल में वे
रंभाती हैं कई गाएँ।
कि पत्थर-ईंट के चूल्हे सुलगते हैं।
फुदकते हैं वहीं दो-चार
बिखरे बालवाले बालकों के श्याम गन्दे तन
व लोहे की बनी स्त्री-पुरुष आकृतियाँ
दलिद्दर के भयानक देवता के भव्य चेहरे वे
चमकते धूप में!!
मुझको है भयानक ग्लानि

निज के श्वेत वस्त्रों पर

स्वयं की शील-शिक्षा सत्य-दीक्षा के

निरोधी अस्त्र-शस्त्रों पर

कि नगरों के सुसंस्कृत सौम्य चेहरों से
उचटता मन
उतारूँ आवरण--

यह साफ़ गहरा दूधिया कुरता
व चूने की सफ़ेदी में चिलकते-से सभी कपड़े निकालूँगा।

किसी ने दूर से मुझको पुकारा है।


गन्दी बस्तियों के पास, नाले पार
गुमटी एक,
जिसके तंग कमरे में
ज़रा-सा पुस्तकालय वाचनालय है।
पहुँचता हूँ। अचानक ग्रन्थ
कोई खोलता ही हूँ कि
पृ्ष्ठों के ह्रदय में से
उभरते काँपते हैं वायलिन के स्वर
सहज गुंजाती झनकार
गहरे स्नेह-सी।
मीठी सघन विस्तृत भरमाती गूंज
जिसकी सान्द्र ध्वनि में से
सुकोमल रश्मियों के पुंज!!
तेजोद्भास
मन खुलता, स्वयं की ग्रन्थियाँ खुलतीं!!


कि इतने में फटी-सी अन्य पुस्तक
खोलता-सा हूँ कि
पृष्ठों के जिगर में से
भयानक डाँट
कोई भव्य विश्वात्मक तड़ित आघात
सहसा बोध होता है
उभरता क्रोध निःस्वात्मक
सहज तनकर गरजता
ज़िन्दगी की कोख में जनमा
नया इस्पात
दिल के ख़ून में रंगकर!!
तुम्हारे स्वर कहाँ हैं,

ओ!!