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उद्बोधन / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
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हम नवीन ज्योति पाबि
की न अनवधान छी,
पूर्ण सावधान छी?
विहुँसि उठल गगन ससरि गेल कालिमा,
पसरि गेल अमर-ज्योतिकेर लालिमा,
ताहि ज्योति मध्य कहू
की विकासमान छी,
जी, प्रकाशमान छी।
रचनात्मक पथपर नहि पैर देब जँ,
अन्तरात्माक संग बैर लेब तँ,
सत्यक आधार केर
की प्रबल प्रमाण छी,
सद्य निर्माण छी।
केवल अधिकारे धरि चीन्हि लेब जँ
आलस्ये विषधर बनि बीन्हि लेत तँ,
भाइभाइ अपन थिकहुँ
क्यो न आब आन छी?
आब क्यो न आन छी।
जागू हे राष्ट्रपुत्र! शक्ति-पुत्र भय,
रचू सुमनमाल्य एकताक सूत्र लय,
भूमि हमर प्राण, भूमि-
केर हमहुँ प्राण छी?
प्राणहिक समान छी।