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जेठ / ऋतु-प्रिया / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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धूल धूसरित आठ दिशा ओ धूमिल अछि आकाश
विधुआयल मुख विधुक मलिन अछि हुनकर रुचिर-प्रकाश

वसुन्धराकेर छाती सहजहि, भेलनि खण्ड-प्रखण्ड
ताहू पर बघुआइ छला, दिन भरि प्रचण्ड मार्तण्ड

कर सँ बिद्ध, ज्वलित जठरानल-मे सैाँसे ब्रह्माण्ड
आइ जलधि घबड़ाय रहल अछि, ग्रीष्मक देखिक कुकाण्ड

प्रलयंकरक फुजल छल प्रायः, भूनल तेसर आँखि
मैना सब चुभकल पोखरि मे, फलका-फलका पाँखि

क्षुद्र नदी जलकोष रिक्त कय, झोंकय नभ पर धूरा
अग्निदेव से अपन फराके, पिजा रहल छथि छूरा

कमलक बन मे फूल पात की, नाल सहिज जरि गेल
चिर दिन सँ सेबित जकरा सँ, से खग-दल चलि गेल

सागर सन पोखरि मे जल बिनु, छटपट करइछ माँछ
बगुला गर मे आइ लगइ छइ, पोठी माछक चाँछ

चटा रहल अछि ग्रीष्म ताप सँ, बड़-बड़ पैघ इनार
कते कूप - मण्डूकक बेड़ा, लागल स्वयं किनार

ठीक-ठीक दुपहर मे, बुझि पड़इत छल ई संसार
मुरही भूजक हेतु धिपौने, हो बुढ़िया कंसार

दिग दिगन्त मे बुझि पढ़इत छल, पसरल धह-धह दाबा
धूकि रहल हो जनु कदली-फल, प्रकृति लगा कय डाबा

नख-शिख अमलतास वन पीअर, पीअर भेल कदम्ब
ई रसाल वन एक लोक केँ, अछि केबल अवलम्ब

दुपहर धरि पुरिबा, सन्ध्या धरि पछबा ठनलक राड़ि
डुबला रवि तेँ स्तब्ध प्रकृति अछि, पहुँचत आब बिहाड़ि

दूर क्षितिज पर कखनहुँ कय, बिजुरी स’ख कनखौ मारि
उन्मन-मन केँ पहिनहि सँ की, रहले किछु परचारि

पाकत आम रोहिनि, हैत अवस्से बरखा हेठ
पलटत लोकक प्राण, आइ सँ चढ़ल मास ई जेठ