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उद्बोधन / जगदीश मिश्र 'मैथिल'

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उठू उठू कनेक देखु, देश दीन-हीन केँ
बनैत मातृ-भूमिकेँ कुवेष शोक-लीन केँ
विचारु आइ काजकेँ, न व्यर्थ आलसी बनू
सशीघ्र युद्ध मध्य फाँड़ बान्हि कै ठनू
करु उपाय जे अनीति आइ देशसौं टरै
अनन्त नाम ओ करै, स्वदेश हेतु जे मरै।

‘शरीर नाश हैत’ ई अवश्य बात जानि ली,
प्रभूक जे विधान हो सदैव सत्य मानि ली,
सुमृत्यु श्रेष्ठ हो सखे! सुनू कुमृत्यु सौं तदा,
सुनाम कीर्ति-राशिहो अनादि जाहि सौं सदा,
न छोड़ि रत्न क्यो कु काँच पाबि भ्रान्तिमे पड़ै,
अनन्त नाम ओ करै, स्वदेश हेतु जे मरै।

विलास-क्रीड़मे मरोड़ चालि नित्य जौं धरी,
बरु महान थीक डूबि थोड़ पानिमे मरी,
सदर्थमे न खर्च जौं अनित्य देहकेँ करी
अनर्थ हेतु व्यर्थ की सदैव जीवने धरी,
विराट राष्ट्र भागमे सुनेह-देह जे धरै,
अनन्त नाम ओ करै, स्वदेश हेतु जे मरै।

कतेक बन्धु, नित्य ओ कटू विषादकेँ सही?
तथापि मूनि कानकेँ किऐक बैसले रही?
किऐ’ न आत्म-आसुरी-अनिष्ट नीतिकेँ तजी?
विनीत भै सुभाग इष्टमार्ग ने किऐ’ भजी?
विपन्न जाति-आर्ति जे विजाति हाथसौं हरै,
अनन्त नाम ओ करै’ स्वदेश हेतु जे मरै।