वन्दना / भुवनेश्वर सिंह 'भुवन'
1.
सुर, नर, मुनि-प्रति पालिनि अम्ब श्री नगराजक कन्या,
देशक कए उद्धार कहाबथु धन्या धन्या धन्या।
दीन ‘भुवन’ पर भए सहाय रिपुधाली काली,
एक बेरि वृन्दावन आबथु पुनि बनि श्रीवनमाली।
जनिक प्रसादेँ भक्त समूहक कवलित सबटा भय हो,
कवि भुवनेश पदोदक पाबथि, नित प्रेमक जय-जय हो।
2.
आशुतोष भामिनि शिवे! सज्जनकुलकेँ तारि,
निज प्रभुत्व प्रकटित करू खलदलकेँ संहारि।
शंकरी, सपूतवंश उन्नति सदैव करु
काटि कऽ कुपूतकेँ कराल वेष धए केँ,
पुण्यशील, शुद्ध परिवारक पसारू यश
पातकी, प्रमादी पामरौक प्राण लएकेँ,
मंगल विखेरि दिअ सूरक समूहपर
दुष्टक कपाल काली कत्तासँ कतरिकेँ
सुकवि समूहकाँ देखाउ दिव्यताक ज्योति
वंचकक शोणितसँ खप्परकेँ भरि केँ।
3.
जनिक चरण-रज पाबि स्वयं श्री धरणी होथि कृतार्थ,
लहि लहि जनिक प्रसाद धुनर्धर अतिशय भए गेल पार्थ,
तनिक प्रसादेँ डूबि रहल अछि तरणी जे मझधार
‘भुवनक’क विनय आबि श्रीमोहन स्वयं लगाबथि पार।
दुख शोकक भए नाश प्रकट हो पुनरपि श्री, सुखशान्ति,
क्लान्त रहए नहि केओ देशमे, हो विध्वंस अशान्ति।