भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आदमी धुएँ के हैं / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:59, 3 सितम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र प्रसाद सिंह |अनुवादक= |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ताँबे का आसमान,
टिन के सितारे,
गैसीला अन्धकार,
उड़ते हैं कसकुट के पंछी बेचारे,
लोहे की धरती पर
चाँदी की धारा
पीतल का सूरज है,
राँगे का भोला-सा चाँद बड़ा प्यारा,
सोने के सपनों की नौका है,
गन्धक का झोंका है,
आदमी धुएँ के हैं,
छाया ने रोका है,
हीरे की चाहत ने
कभी-कभी टोका है,
शीशे ने समझा
कि रेडियम का मौका है,
धूल ‘अनकल्चर्ड’ है,
इसीलिए बकती है-
- ‘ज़िन्दगी नहीं है यह- धोखा है, धोखा है !’