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ना साधू-ना चोर / राजेन्द्र प्रसाद सिंह
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ओ भैया, - ना साधू—ना चोर
हम मुंह्जोर—झुग्गीवाले!
चटकल की चिमनी ने आज तरेरी आँखे,
मिल की भट्टी आग-लहू का भेद मिटाती,
करखनिया मजदूर
इकट्टे हिम्मत से भरपूर
नशे में चूर,--कबीरा गाते....
ओ भैया, -- ना साधू—ना चोर
हम शहजोर---ढाबेवाले!
नाम धरम के पेट पालते भीख माँग जो,
या जो खेलें जुआ, पसीने से, पूंजी का,
दोनों धोखेबाज़,
लड़ाकर हमें भोगते राज,---
खुला यह राज, सामने सबके!
ओ भैया,--ना साधू---ना चोर
हम कमजोर गांठोंवाले,
दलदल में धँस नदी-समन्दर में भी डूबे,
दबे नींव में, दीवारों में चुने गए हम;
छत से फिसले, गिरे,
पहाड़ों-खानों में फँस मरे,
कैद में सड़े—नाम पर श्रम के!
ओ भैया, ना साधू—ना चोर
हम पुरजोर पुट्ठोंवाले