भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इतनी हसीन रात कोई देखता नहीं / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:08, 30 सितम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कांतिमोहन 'सोज़' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इतनी हसीन रात कोई देखता नहीं ।
है देखने की बात कोई देखता नहीं ।।

गर्दूं की वुसअतों में भटकता है हर बशर
क़तरे की कायनात कोई देखता नहीं ।

पर्दे में ख़ामुशी के शबो-रोज़ हर घड़ी
होती है वारदात कोई देखता नहीं ।

मज़हब ही उसकी आख़िरी पहचान बन गया
क्यूँ आदमी की ज़ात कोई देखता नहीं ।

बगुले ने कैसे चोंच में मछली दबोच ली
क्यूँ ऐसे वाक़यात कोई देखता नहीं ।

बेगानावार तू भी बग़ल से गुज़र गया
बदरंगिए-हयात कोई देखता नहीं ।

अब चलके सोज़ आप भी पत्थर बटोरिए
दिल के जवाहिरात कोई देखता नहीं ।।