भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं ही तुम्हें छोड़ देता हूँ / असंगघोष

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:00, 13 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=समय को इ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं ही तुम्हें छोड़ देता हूँ!

तुम्हें!
अपनी ऊँची
पहचान प्यरी है
उसे छोड़
तुम सुधरोगे
नहीं
तुम्हें सुधारना भी
कौन चाहता है

साँप के बच्चे को
दूध पिलाने से
कहीं उसका जहर कम होता है
यह तुम ही कहा करते थे ना

हाँ मेरा जहर
बढ़ता ही जा रहा है
इससे पहले
कि मैं तुम्हें काट खाऊँ
और
तुम्हें पीने
पानी भी ना मिले
मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ
आज
तुम्हारे लिए बेहतर है यही
भाग जाओ