भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाँ हम गवाही देंगे / असंगघोष

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:59, 16 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=हम गवाह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घोर अंध रात्रि के
इस निस्तब्ध समय में
शायद
मौत चली आ रही है
चुपचाप दबे पाँव
गली के मुहाने से
मेरे घर की ओर

अनजाने भय से ग्रस्त
आँखें
टकटकी लगाए/दरवाजे की ओर
लगातार ताकतीं

यह कोई
वहम तो नहीं है मेरा?

एकाग्र हो
मेरे कान सुनने लगे हैं
अजीब-सी पदचापें
पदचापें
दरवाजे के समीप
हाथों में मशाले लिए
खामोश हुईं

हाँ,
यह मेरा वहम नहीं
घर के बाहर मशाल की लौ में
चुपचाप खड़ी/साक्षात मौत ही है
अकेली नहीं
साथ में तेरा भेजा कहर भी है
जो अब बरसने लगा है
कनस्तरों से आग बनकर
हमारी झोपड़ियों पर
तेरी बन्दूकें
उगलने लगी हैं
मौत

लेकिन
अब भ्रम में न रहो
कि हमारे पास कुछ नहीं
हम निहत्थे ही सही/सामना करेंगे
तुम्हारी लाठी-गोलियों का
बच गए
तो गवाही देंगे
तुम्हारे खिलाफ
कचहरी में
अन्धे कानून से न्याय माँगने
हम सब निहत्थे ही सामना करेंगे!
हाँ, अभी तो निहत्थे ही?