अन्धकार!
सघन
भीकाकार
दुःख का, प्रतीक्षा का
लिये भार
जा रहा! जा रहा!!
आ रहा, आ रहा,
आशा-पिपासा ले,
विहगों के मृदुल सुर में
नयी-नयी भाषा ले,
ज्योति का बसेरा रे;
सवेरा रे, सवेरा रे!
ऊषा के
अधरों से
मधुमय अनुराग भरा!
”इतना ही
बहुत हुआ।
आखिर वे
आये तो!
मेरी इस किस्मत ने
कृपा-भाव पाये ते!“
”धन्य हुआ! धन्य हुआ!!“
धीरे से, हौले से
नयनों को खोल,
उठा!
कमल सरल बोल,
उठा!
(क्या?)
कि ”कितना मनमोहक है
किरणों का हार!
कितना आकर्षक है
बच्चे का प्यार!
व्यर्थ नहीं जाती है
आँसू की धार!“
सरवर में
चमक रही
रवि की
परछाँही!
लहरों में
दीख रही
आकुल
गलबाँही!
झुलस रहा है
जहान!
हाँफ रहा।
आसमान!
पलों में सिमट रही
छाया भी परीशान!
उगल ज्वाला
लाल-लाल
आँखों से
रवि ने जब
त्रस्त किया
धरती को,
नन्दन को,
परती को,
देखा तब-
नन्हे से
पौधे में
एक कली,
लाल-लाल
भली-भली
चुपके से
विहँस उठी!
लपटों से
फूल खिले!
आँधी से
दीप जले!-
आश्चर्य! आश्चर्य!!
रवि भी
अवाक् रहा!
ऊपर बन्धूक मगर
निर्निमेष
ताक रहा!
सूरज को
मौन देख
पहले तो
मुस्काया,
फिर कुछ गम्भीर हुआ,
धीरे से बोल उठा-
(क्या?)
कि ”प्यार की निशानी को
सकता है कौन
जला?
जीवन के दुपहर में
लगता है प्यार
भला!
बनता मझधारों में
तिनका भी
कूल एक!
रखता अस्तित्व क्या न
दुपहर का
फूल एक!
दिन भर का
थका-थका,
चलता है
रुका-रुका;
अनुभव ले बुरा-बुरा
भला-भला।
जला-जला
सुखी-सुखी।
इतने में दीख पड़ी
झुकती
सूरजमुखी!
सूरजमुखी?
कौन यह?
मौन यह?
प्रातः से
सायं तक
पीछे ही लगी रही!
गुमसुम ही बनी रही!
दीपक की
छाया-सी,
किंवा, यह
माया-सी?
ढलते उस दिनकर ने
बार-बार
प्यार से,
कुतूहल से,
देखा उस
मौन को,
अपने उस
कौन को,
आँखें झुकाये,
हाय,
नतमस्तक, म्लानमुख
चुपके खड़ी है जो
युवती वियोगिनी-सी;
पति जिसका
जीर्ण-शीर्ण
जा रहा
विदेश कहीं!
(1.9.52)