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मील के पत्थर की आत्मकथा / श्यामनन्दन किशोर

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रे किसी अनगढ़ विधाता की कला का एक तुच्छ प्रसाद हूँ मैं!
यों किसी उन्नत शिखर, विभ्राट गिरि की एक हल्की याद हूँ मैं!
मिल जिसे जिह्वा न पायी सृष्टि की ऐसी पहेली, कथा हूँ मैं!
हरे! रह गुमनाम खुद बनता हजारों का सुनिश्चित पता हूँ मैं!

एक दीवट हूँ लिये सिर पर प्रभा का पुंज मैं बेलौस जलता।
है न खलता अन्धकार मुझे न तिल-तिल तप्त शापित स्नेह ढलता।
रे किसी के लक्ष्य के सन्धान की उम्मीद हूँ, अरमान हूँ मैं!
एक मंजिल तक पहुँचने का सहज भी, सुदृढ़ भी, सोपान हूँ मैं!

देखता कि वसन्त जाता फूल के ले बाण कोमल और तीखे!
पत्थरों के भी अधर से फूटते हैं गीत दूर्वादल सरीखे!
किन्तु मेरे भाग्य के वीरान में उगता न कोई स्नेह-अंकुर!
हाँ, जलाता है मुझेजी-भर निदाध समझ जनम भर का तृषातुर!

भेंट जब पावस चढ़ाता गोद में मरुभूमि की शतरंग शाद्वल!
मैं वियोगी, स्वप्न के प्रिय-मिलन-सा, तब भी सरस दो-चार ही पल!

रात में डर आदमी की छाँह भी जब छोड़ उसको भाग जाती!
मैं खड़ा रहता उठाये सिर बना विश्वास की दुर्जेय थाती!

मील का पत्थर नहीं, रे साधना का ज्यों ज्वलित इतिहास ही साकार हूँ मैं!
जो किसी के चरण छूकर मुक्ति पा ले, उस शिला का भी नहीं अधिकार हूँ मैं!
हूँ नहीं वह जो किसी नृप की प्रिया की याद को कर देउजागर नदी-तट पर!
मैं हजारों ताज औ’ बेताजवालों को समर्पित एक-सी सेवा निरन्तर!

(2.7.71)