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कुंती का एकालाप / श्यामनन्दन किशोर

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माँगी विद्या-बुद्धि, दिया प्रभु तुमने मुझको ज्ञान
यश माँगा, तो दिया विश्व भर का दुर्लभ सम्मान!

धन जो माँगा, दी कुबेर की झोली तुमने खोल,
जन जो माँगा, दिये एक से एक पुत्र अनमोल।

किन्तु बिना माँगे ही तुमने वस्तु मुझे दी एक,
‘क्षुद्र हृदय’-अट सके न जिसमें यश, धन, जन कि विवेक।

ज्ञान बन गया आँच, न बन पाया वह निःस्व प्रकाश,
यश न बन सका पवन, बना दुर्जेय अहं का पाश।

धन न बना रवि-किरण, बना भोक्ता मेरे यौवन का,
जन की लक्ष्मण-रेख बन गया कारागार भवन का।

दाता, लौटा लो माँगा जो कुछ है हमने अगणित,
फिर तो अपने आप न रह पाएगा दान अयाचित।

(एक लम्बी कविता का अंश)

(11.7.71)