भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आ गया हँसता हुआ यह प्रात / जनार्दन राय

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:14, 27 नवम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जनार्दन राय |अनुवादक= |संग्रह=प्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आ गया हंसता हुआ यह प्रात,
मिट गई महिमा तुम्हारी रात।

शून्यता की गोद में था मैं पड़ा,
था नहीं कोई सहायक भी खड़ा।
व्यालिनी सी डस रही थी रात,
आ गया हंसता हुआ यह प्रात।

दृष्टि जाती थी जिधर तम था वहां,
फूल के बदले बिछे कांटे यहां।
काट खाती थी भयानक रात,
आ गया हंसता हुआ यह प्रात।

विरह का था जल रहा मुझ में अनल,
कर रहा था मुझे प्रतिपल विकल।
था जलता विहंसता जल जात,
आ गया हंसता हुआ यह प्रात।

कालिमा से पूर्ण था जीवन-गगन,
स्वप्न भी देखा नहीं हूंगा मगन।
आंख ने था ला दिया बरसात,
आ गया हंसता हुआ यह प्रात।

गीत ने तेरा बनाया है महल,
प्रीत ने तेरी खिलाया है कमल।
मस्त होता जा रहा सुनकर तुम्हारी बात,
आ गया हंसता हुआ यह प्रात।

रागिनी है छेड़ दी तुमने बड़ी,
हर जगह पाता सदा तुमको खड़ी।
गुंजते ही स्वर तुम्हारे सात,
आ गया हंसता हुआ यह प्रात।

मलिनता मन की मिटी पाकर तम्हें,
छोड़ दूंगा स्वर्ग अपनाकर तुम्हें।
ला दिया तुमने यहां घर में ही गंगा-कात,
आ गया हंसता हुआ यह प्रात।

बस गया तुमसे यहां उजड़ा चमन,
आ रहा है चूमने लोभी पवन।
हो रहा है आज शीतल गात,
आ गया हंसता हुआ यह प्रात।

आगमन से दीप मंगल का जला,
हो रहा जिससे सदा जग का भला।
पा रहे सब हैं खुशी तेरे ही प्रेम वसात,
आ गया हंसता हुआ यह प्रात।

चाहिये कुछ भी न केवल प्यार तब,
पा लिया वरदान तुमसे आज सब।
जिन्दगी फूले-फले बितकर सुहानी रात,
आ गया हंसता हुआ यह प्रात।

-ईद-त्योहार, दिघवारा,
8.3.1962 ई.