Last modified on 27 नवम्बर 2015, at 05:15

साथी मत तू घबड़ाना / जनार्दन राय

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:15, 27 नवम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जनार्दन राय |अनुवादक= |संग्रह=प्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

साथी मत तुम घबड़ाना।
हेरा पहला-पहला साथ,
मिलाया जी भर अपना हाथ,
मगर रक्खा था धोखा साथ,
इसी से पाये तुम रोना।
साथी मत तुम घबड़ाना।

मिला था तुमको शुभ अवसर,
नहीं पहचाने तुम लख कर।
सताया तू ने जी भर कर,
इसी से लिखते अफसाना।
साथी मत तुम घबड़ाना।

किया जी भर तेरा सत्कार,
मगर तुम भूल गये उपकार,
गिराना चाहे बारम्बार,
इसी से पड़ता पछताना।
साथी मत तुम घबड़ाना।

देख कर मेरा सीधापन,
दिखाया मुझको अपनापन,
मगर छोड़ा नहीं तीतापन,
इसी से पड़ता भय खाना।
साथी मत तुम घबड़ाना।

गये तुम जब-जब बाजी हार,
आये तब-तब मेरे द्वार,
जोड़कर अपने सुख के तार,
भूल बैठे हो झुक जाना।
साथी मत तुम घबड़ाना।


जग की माया का विस्तार,
न सुख-दुख का होता निस्तार,
मिलते फिर भी सुख का सार,
सीख लो दिल से मुस्काना।
साथी मत तुम घबड़ाना।

करो शास्वत जग के उपकार,
त्याग कर मन के सभी विकार,
मिलेंगे सब खोये अधिकार,
भूल जाओगे मुस्काना।
साथी मत तुम घबड़ाना।

छोड़कर मानव कुसुम-पराग,
गाओ प्रकृति रूप का राग,
सभी चिन्ता जायेगी भाग,
सीख लो गुण को अपनाना।
साथी मत तुम घबड़ाना।

भूल जाओ तुम हो सर्वस्व,
निभाओ सबसे ही अपनत्व,
नम्रता ही बनती सर्वस्व,
सीख लो मानव गुण गाना।
साथी मत तुम घबड़ाना।

-छपरा,
25.2.1953 ई.