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दिल किसको ढूँढ़ रहा है / जनार्दन राय

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जग क्या जाने दिल किसको ढूंढ रहा है?
किसके अभाव ने हृदय विदग्ध किया है।
जग पग-पग पर पागलपन ढूंढ रहा है,
वह क्या जाने किसने हिय विकल किया है।

आते कितने आँखों के आगे आते,
कितने आँखों से नित ओझल हो जाते।
पर पा न किसी को उर क्रन्दन करता है,
क्यों व्यर्थ जगत मुझ पर हंसता रहता है?

दिन बीत रहे हैं, रातें बीत रही हैं,
मम उर-आशा लतिकायें सूख रही हैं।
जीवन का प्रतिपल युग सम बीत रहा है,
जग क्या जाने दिल किसको ढूंढ रहा है?

काले-काले बादल नभ में घिर आते,
उर-गागर नव भावों से हैं भर जाते।
बादल प्रसन्न हो जनहित जल बरसाता,
तब प्रियजन का वियोग कितना तरसाता?

लहरें उठ-उठ नूतन उत्साह बढ़ाती,
प्रियतम पाने का पावन पाठ पढ़ाती।
पर धैर्य अश्रु बन-बन कर भाग रहा है,
जग क्या जाने दिल किसको ढूंढ रहा है?

-डुमरिया खुर्द,
10.7.1950