भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लाल / मुइसेर येनिया
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:30, 6 दिसम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुइसेर येनिया |अनुवादक=मणि मोहन |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ताकि तुम तोड़ सको मुझे अपनी शाख़ से
मेरे होंठ लाल हैं
यह ग्रीष्म है
प्रेम आगे जा रहा है
और पीछे हट रहा है
जैसे शीतल जल
रेगिस्तान की रेत पर
मेरे हाथ
देह को खींच रहे हैं
तुम तक पहुँचने के लिए
उँगलियाँ अपने निशान छोड़ रही हैं
तुम्हारी निगाह के शीशे पर
- यह मौसम बगीचा होना चाहिए
तुम्हे स्पर्श करने का -
( तुम ...जो एकान्त देह हो
मेरी आत्मा की )
अब तुम चुन सकते हो
उन फूलों को
जो खिल रहे हैं मेरी देह में ।