भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं नदी हूँ / रंजना जायसवाल

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:38, 7 दिसम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना जायसवाल |अनुवादक= |संग्रह=ज...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उठती है कोई औरत
उठती हूँ मैं
गिरती है कोई औरत
गिरती हूँ मैं
नदी हूँ
और दुनिया की सारी औरतें मेरी धाराएँ
क्षण भर न लगे
दुनिया बदलने में यदि
सारी धाराएँ एक हो जाएँ
वे हममें ईर्ष्या के बीज बोते हैं लड़ाते हैं
ताकि सेंक सकें स्वार्थ की रोटियाँ
और कह सकें ताल ठोंककर
‘औरतें ही होती हैं औरत की सबसे बड़ी शत्रु’
ऐसा कहने में सफल हो जाते हैं
क्योंकि औरत के खिलाफ़
औरत के इस्तेमाल की कला जानते हैं वे
कि औरत की डोर उनके हाथ में है
जिस पर नाचेगी ही वह
अपने हर रूप में
वे जानते हैं औरत के उस प्रेम को
जो उनके लिए है
और जो कुछ भी करा जा सकता है उससे
माँ की कोख में ही
समझ गयी थी मैं औरत के भोले प्रेम
और उनकी साज़िशों को
चुप-चुप या कि मुखर
औरत की तकलीफ़ से छटपटाती रहती हूँ मैं
क्योंकि मैं नदी हूँ
और दुनिया की सारी औरतें मेरी धाराएँ हैं।