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जलकुम्भी / रंजना जायसवाल
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न जाने किस सम्मोहन में बँधी
आयी थी तुम यहाँ
किसी ने भी तो
स्वागत नहीं किया तुम्हारा
अश्रय दिया जब गदले जल ने
तुम उसी की होकर रह गयी
हमेशा के लिए
बनाया साफ-सुन्दर-स्वच्छ
डालकर अपना हरा आँचल
कुछ नहीं चाहा अपने लिए
बार-बार काटा गया तुम्हें
धूप ने भी जलाया खूब
फिर भी नष्ट नहीं हुई
तुम्हारी जड़ें
बेहया-सी जिन्दा रही
तुम हर हाल में
जलकुम्भी
क्या इसलिए बुरी हो तुम
कि पनप जाती हो हर बार
काट दिये जाने के बाद भी
कि हर हाल में निभाती हो
सिर्फ एक का साथ
कि बिखेरती रहती हो
विपरीत परिस्थितियों में भी
अपनी भोली, बैंगनी हँसी।
 
	
	

