हाँ, मैं बागी हूँ
विद्रोही हूँ
मैंने पिता की बात गलत साबित की
कि अक्षर ज्ञान से अधिक नहीं पढ़ सकती
भाई का अभिमान तोड़ा
कि सिर्फ चूल्हा-चौका ही मेरी नियति है
हाँ, मैं बागी हूँ
समाज के बनाये चौखटों में फिट न हो सकी
पति के चरणोदक न ले सकी
नहीं चाहा देह के बदले
नाम, रोटी और सुरक्षा
चाहा प्रेम के बदले प्रेम
समर्पण के बदले समर्पण
मैं विद्रोही हूँ
मैंने मित्रों की बात नहीं मानी
कि नारी की स्वतन्त्रता स्वच्छन्दता है
प्रेमी की बात नहीं मानी
उसने भी मुझे शरीर-मात्र समझा
और प्रेम के नाम पर कैद करना चाहा
उसी अँधेरी गुफा में
जहाँ से मैं निकली थी
मेरे हृदय में है
सम्मान, स्नेह, प्रेम, समर्पण
करुणा, दया, ममता
मेरा युद्ध पुरुष जाति से नहीं उस साँचे से है
जिसमें फिट होना बना दी गयी है
स्त्री की नियति
मैं मनुष्य हूँ
और इसी रूप में व्याकुल हूँ
पहचान के लिए
सम्मान के लिए
शायद इसीलिए मैं बागी हूँ
विद्रोही हूँ