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एक जमींदोज़ शहर / कुमार रवींद्र
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एक ज़मींदोज़ शहर
लोग यहाँ रहते थे
कैसे थे
कौन कहे
गुंबज थे
लंबे गलियारे थे
सभी ढहे
ऊँची मीनारों पर
बरपा था कौन कहर
चाँदी के महलों में
परियों के किस्से थे
रिश्ते थे
नाते थे
बँटवारे- हिस्से थे
चौखट पर बजती थी
शहनाई आठ पहर
झगड़े थे
झंझट थे
खूनी तहखाने थे
अपने ही लोगों के
चेहरे अनजाने थे
भूखे थे - प्यासे थे
पीते थे रोज़ ज़हर