भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सीपी-क्षण मुट्ठी में / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:18, 13 दिसम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=च...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उजियाला पूरा है
   या गहरा अँधियारा
           कुछ भी तो पता नहीं
 
पोत लिये आये थे
सागर में
बहुत दूर निकल गये
मुट्ठी में पकड़े
हम सीपी-क्षण
मोती की बस्ती में फिसल गये
 
घटता यह जल है
    या उठता है ज्वार
          कुछ भी तो पता नहीं
 
बाँधते रहे लंगर
पाँव-तले
खिसक रही रेती से
अपनी ही आहट से
डरे हुए
जुड़े रहे घोंघों की खेती से
 
कितना कुछ दे बैठे
     या कितना है उधार
         कुछ भी तो पता नहीं