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खोज है मीठे कुँओं की / कुमार रवींद्र
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पाँव नंगे
रेत के फैलाव खारे
बस्तियाँ कड़वे धुँओं की
हर सरोवर के किनारे
दिन-ढले तक
आहटें हैं
धूप की मीनार के नीचे
कई टकराहटें हैं
वही खबरें
चुके सूरज के शहर में
थके कंधे-बाज़ुओं की
मुट्ठियों में प्यास बाँधे
लोग आँगन में
खड़े हैं
बादलों के चित्र नीले
बंद कमरों में जड़े हैं
वही पिछली आदतें
सागर किनारे
खोज है मीठे कुँओं की