रुपये का पेड़ / हेमन्त कुकरेती
सोचता था पैसे कभी रुपये बन जाएँगे
छुड़ा लूँगा अपना चेहरा
जिनसे उधार ली है पहचान
हो सका तो मन का क़र्ज़ भी चुका दूँगा
जितना दिखाई देता था मैं, सच था
मैं अपने भीतर भी था पर गिरा हुआ नहीं
बसा हुआ था
वहाँ भी बाहर का अदृश्य अन्धकार घेरे हुए था मुझे
सिर काँटों से बिंधकर टुकड़े-टुकड़े
और पैर अपने बोझ से दोहरे हो रहे थे
मैं भाग कैसे सकता था
मेरी आँखों की जगह खनकते सिक्के चाहनेवालेां की नज़र
मुझे अतल में भी पकड़ लेती
मैंने उन्हें पतन से बचाये रखा
खु़द मैं बीज होना चाहता था
उम्मीद थी कि घास हो जाऊँगा
मेरे पेड़ होने को लेकर वे बेकार में ही
खरपतवार हो गये
और घेर ली मेरी जगह
मैं एक आदमी हो गया
जिसने पाया कि उसकी भूख मिटाने के लिए
कहीं भी नहीं उगतीं वनस्पतियाँ
भूख से ध्यान हटता तो किसी को बचाने पर लगाता
मैं तो लड़ाकू हो गया
फिर भी जीतने के पैसे इतने कम थे कि मैं उन्हें क्या बचाता
वह मुझे बचाते भी तो कब तक
मेरी ज़रूरतें कितना खातीं मेरा शरीर
अपनी ज़रूरतों के लिए मैं बन गया उनकी ज़रूरत
सोचता था पैसे कभी रुपये बन जाएँगे
देखा कि पैसे के लिए मैं सिक्का बन गया
और दूसरों की लगायी क़ीमत पर चल गया...