भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देखकर समय का अन्धकार / हेमन्त कुकरेती

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:36, 17 दिसम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हेमन्त कुकरेती |संग्रह=चाँद पर ना...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़ूब चलने के बाद मैं और चलता हूँ
रुकने के बाद भी मैं रुकता नहीं
जो चल रहा है मैं उसमें हूँ
पृथ्वी में मेरा होना दर्ज़ है ऐसे ही सूर्य के
चलने का दस्तावेज़ मेरे उल्लेख के बिना अधूरा है

नक्षत्र जो विश्वास दिलाते हैं अँधेरे को पीकर रोशनी फैलाने का
जमे हुए अन्धकार में, मेरे साथी हैं
जो दिशा उजली है मेरी आँख है भेदती है अँधेरे की चट्टान
मेरी उँगलियों पर गिनो सृष्टि के प्रकाशवर्ष

दो फसलों के बीच जो बचे हुए दाने हैं
मेरी भूख है तो उन्हें कहा जाता है अन्न
हारते नहीं मौसम से सूखकर जीवन रस बनते हैं बीज
गलाकर काया प्रकाशित करते हैं पृथ्वी की हरी रोशनी

हाहाकार में जीवन के निशान बचाने के लिए
मैं अपने समय से लड़ता हूँ
यह घर में आदमी को बचाये रखने के लिए ज़रूरी है

मैं जानता हूँ अँधेरे में जीने की मजबूरी
चलकर आता हूँ मैं अपने सुरक्षित एकान्त से
और चला जाता हूँ दूर
वहाँ होता है सब के पास
चोट खाने पर मुझे दर्द होता है
सोचता हूँ अपने रोने के साथ ही कभी-कभी
देख लेने चाहिए आँसू जो बहते हैं किसी के अँधेरे में
सूखने से पहले सुन लेनी चाहिए उनकी आवाज़

मैं देखता हूँ अपने समय का अन्धकार
और यह देखना जानना है उजाले को
मेरी हँसी रुलाई से उपजी है
मैं उन सारी लकीरों को बदल देना चाहता हूँ
जिनके अर्थ डरे हुए हैं विवश...