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मन लगाकर / हेमन्त कुकरेती

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बिजली के तार पर अटकी पतंग
फरफराती है: छूटती नहीं
बारिश गला देती है उसे

रात को जाने कहाँ से
एक पुराना गीत हवा में लरजता है
टूट जाता है मुझ तक आते-आते

सप्तर्षि अपनी चारपाई मेरे नज़दीक बिछाते हैं
आकाश कुछ और धँस जाता है उनके खलल से

कुत्ते अपने पूर्वजों की नीतिकथा को
याद करके आदमी के और नज़दीक कर देते हैं
बिल्लियों को

रात को दरे से लौटता आदमी
अपने अगले दिन की भूमिका से डरकर
ढह जाता है बिस्तर पर

पृथ्वी की थकान रात के संवादों का अन्तराल तोड़ती है
और कै़द से छूटने का इन्तज़ार
मन लगाकर करने लगता है
दिन