सिलबट्टा / हेमन्त कुकरेती
जाने कहाँ की सभ्यता से निकला है वह
पत्थर नहीं है वह केवल
एक दुनिया है उसकी
और हमारी रसोई में वह सबसे पुरानी धरती है
जिस पर सबसे पहली माँ जीवन के स्वाद को बढ़ाने के लिए
पीस रही है प्राचीन वनस्पतियाँ
क्या वह पूजा-कथाओं का कोई देवता है ऐसा
जिस पर नहीं लगाना पड़ता हल्दी-चावल का तिलक
न उसे प्रसन्न करने के लिए पढ़नी पढ़ती है कोई आदि कविता
उदास लगता है वह
एक कोने पर पड़ा हुआ सुनता है मशीन का रौरव
जिसमें बाहर निकलने पर मसाले अपने रस से छिटक जाते हैं
परिवार के इस बुजुर्ग से समय मिलने पर ही
हो पाती है बातचीत
और समय कितना कम है हमारे समय में
हमारी नसों में बसे नमक और बहते हुए खू़न में
उसका भी अंश है
हर दाने के साथ हमारे भीतर प्रवेश करता है
उसके कई घर हैं कई द्वार कई खिड़कियाँ
कई चेहरे हैं उसके
कई सदियों से जीवित है वह
जैसे पेड़ हर वर्ष अपने तने में बढ़ा लेते हैं एक वृत्त
वह हर बार हमारे लिए लेता है जन्म
उसकी कई कहानियाँ हैं अनेक संस्मरण
किसे याद करें जो भुला दिया हो
कुछ भी नहीं है ऐसा
कि दूर ही नहीं हुआ वह कभी हमारे जीवकोषों से
वह पुरखा है हमारा जो कई-कई सदियों से हममें बसा है।