भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्या सब इन्सान जगे हैं / कमलेश द्विवेदी
Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:52, 25 दिसम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कमलेश द्विवेदी |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
दिल में फिर अरमान जगे हैं.
सोये थे मेहमान जगे हैं.
गाँवों में सूरज से पहले,
खेत जगे खलिहान जगे हैं.
उनके दोष छिपाने खातिर,
दीन-धरम-ईमान जगे हैं.
कृष्ण अभी पैदा हों कैसे,
जेलों के दरबान जगे हैं.
जब-जब आँख तरेरी उसने,
बस्ती के शमशान जगे हैं.
जगते तो दिखते हैं सारे,
पर क्या सब इन्सान जगे हैं.