भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मौत का धड़का / नज़ीर अकबराबादी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:39, 7 जनवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुनिया के बीच यारो, सब ज़ीस्त<ref>जीवन</ref> का मज़ा है।
जीतों के वास्ते ही यह ठाठ सब ठठा है।
जब मर गए तो आखिर, फिर उम्र ख़ाके पा<ref>पैरों की धूल</ref> है।
ने<ref>न</ref> बाप है न बेटा, ने यार आश्ना है।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥1॥

जीतों के दिल को हर दम क्या ऐश पै व पै बपै<ref>लगातार, निरन्तर</ref> है।
गुलज़ार<ref>बाग़</ref>, नाच, सेरें, साक़ी<ref>शराब पिलाने वाली</ref>, सुराही मै<ref>शराब</ref> है।
जब मर गए तो हरग़िज मैं है न कोई शै<ref>वस्तु</ref> है।
इस मर्ग<ref>मृत्यु</ref> के सितम को, क्या-क्या कहूं मैं है-है।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥2॥

है दम की बात, जो थे मालिक यह अपने घर के।
जब मर गए तो हरगिज़ घर के रहे न दर<ref>दरवाजे़</ref> के।
यूं मिट गए कि गोया थे नक़्श<ref>निशान</ref> रहगुज़र<ref>आम रास्ता, सड़क</ref> के।
पूछा न फिर किसी ने ये थे मियां किधर के।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥3॥

मरने के बाद कोई उल्फ़त न फिर जतावे।
ने बेटा पास आवे, ने भाई मुंह लगावे।
जो देखे उनकी सूरत, दहशत से भाग जावे।
इस मर्ग<ref>मौत</ref> की जफ़ाऐं<ref>अत्याचार</ref>, क्या क्या कोई सुनावे।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥4॥

पीते थे दूध, शर्बत और चाबते थे मेवा।
मरते ही फिर कुछ उनका, सिक्का रहा न थेवा<ref>अंगूठी के नगीने का पत्थर जिस पर मुहर खुदवा लेते हैं</ref>।
बच्चे यतीम हो गए, बीवी कहाई ‘बेवा’।
इस मर्ग ने उखाड़ा किस किस बदन का लेवा।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥5॥

जब रूह तन से निकली, आना नहीं यहां फिर।
काहे को देखते हैं, यह बाग़ो बोस्तां फिर।
हाथी पे चढ़ के यां फिर घोड़े पे चढ़के वां फिर।
जब मर गए तो लोगों यह इश्रतें कहां फिर।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥6॥

घर हो बहिश्त जिनका और भर रही हो दौलत।
असबाब इश्रतों के, महबूब खूबसूरत।
फिर मरते वक़्त उनको क्यूंकर न होवे हसरत।
क्या सख़्त बेबसी है, क्या सख़्त है मुसीबत।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥7॥

खाने को उनके नेमत सौ सौ तरह की आती।
और वह न पावें टुकड़ा देखो टुक उनकी छाती।
कौड़ी की झोपड़ी भी, छोड़ी नहीं है जाती।
लेकिन ”नज़ीर” सब कुछ यह मौत है छुड़ाती।
डरती है रूह यारो, और जी भी कांपता है॥
मरने का नाम मत लो, मरना बुरी बला है॥8॥

शब्दार्थ
<references/>