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मज़म्मते अहले दुनियाँ / नज़ीर अकबराबादी

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क्या-क्या फरेब कहिये दुनियां की फित्रतों का।
मक्रो, दग़ाओ, दुज़दी है काम अक्सरों का॥
जब दोस्त मिलके लूटें असबाब दोस्तों का।
फिर किस जु़बां से शिकवा अब कीजै दुश्मनों का॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥1॥

गर दिन को है उचक्का, तो चोर रात में हैं।
नटखट की कुछ न पूछो, हर बात-बात में हैं॥
इसकी बग़ल में गुप्ती, तेग़ उसके हात में हैं।
वह इसकी फ़िक्र में है, यह उसकी घात में हैं॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥2॥

देखे कोई है जिनका है गठ कटी वतीरा।
जामे पे खा रहा है, लुच्चे का दिल हरीरा॥
लठ मार ताकता है, हर आन सर का चीरा।
जूती को तक रहा है, हर दम उठाई गीरा॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥3॥

अय्यार और छिछोरा नित अपने कार में है।
और सुबह खे़जया<ref>तड़के उठने की आदत वाला</ref> भी, अपनी बहार में है॥
क़ज़्ज़ाक़<ref>लुटेरा</ref> जिस मकां पर फ़िक्रे सवार में है।
प्यादा ग़रीब, उस जा, फिर किस शुमार में है॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥4॥

इस राह में जो आया असवार गह के घोड़ा।
ठग से बचा तो आगे, क़ज़्ज़ाक ने न छोड़ा॥
सोया सरा में जाके, तो चोर ने झंझोड़ा।
तेग़ा रहा न भाला, घोड़ा रहा न कोड़ा॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥5॥

नादान को पिलाकर, एक भंग का प्याला।
कपड़े बग़ल में मारे, और ले लिया दुशाला॥
दाना मिला, तो उसमें, घोला धतूरा काला।
होते ही गाफ़िल उसको, फांसी में खींच डाला॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥6॥

पैसे, रूपे, अशर्फ़ी या सीमो ज़र का पुतरा।
भर जेब घर में लावे, है कौन ऐसा चतुरा॥
स्याना भी चूक खाये यह फ़न है वह धतूरा।
कतरे है जेब चढ़कर हाथी पे जेब कतरा॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥7॥

चिड़ियां ने देख ग़ाफ़िल, कपड़ा उधर घसीटा।
कौए ने वक़्त पाकर, चिड़िया का पर घसीटा॥
चीलों ने मार पंजे, कौए का सर घसीटा।
जो जिसके हाथ आया वह उसने धर घसीटा॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥8॥

सैयाद<ref>शिकार करने वाला</ref> चाहता है हो सैद<ref>शिकार का जानवर</ref> का गुजारा।
और सैद चाहे दाना, खाकर करे किनारा॥
काबू चढ़ा तो उसका दाना वह खा सिधारा।
और कुछ भी चाल चूका, तो वोही जाल मारा॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥9॥

निकला है शेर घर से, गीदड़ का गोश्त खाने।
गीदड़ की धुन लगावे, खुद शेर को ठिकाने॥
क्या-क्या करें है बाहम, मक्रो, दग़ा बहाने।
यां वह बचा ‘नज़ीर’ अब जिसको रखा खु़दा ने॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥10॥

शब्दार्थ
<references/>