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आटे-दाल का भाव-1 / नज़ीर अकबराबादी

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क्या कहूँ नक़्शा मैं यारों! ख़ल्क़<ref>दुनिया</ref> के अहवाल का।
अहले दौलत का चलन, या मुफ़्लिसो<ref>गरीब</ref> कंगाल का॥
यह बयां तो वाक़ई है, हर किसी के हाल का।
क्या तबंगर<ref>तन्दुरुस्त</ref>, क्या ग़नी, क्या पीर और क्या बालका॥
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥1॥

गर न आटे दाल का अन्देशा होता सद्दराह<ref>काम में रुकावट डालने वाला</ref>।
तो न फिरते मुल्क गीरी को वज़ीरो बादशाह॥
साथ आटे दाल के है हश्मतो<ref>नौकर चाकर</ref> फ़ौजो सिपाह<ref>सेना</ref>।
जा बजा गढ़, कोट से, लड़ते हुए फिरते हैं आह॥
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥2॥

गर न आटे दाल का होता, कदम यां दरमियां<ref>बीच</ref>।
मुंशियो मीरो<ref>अध्यक्ष, सरदार</ref> वज़ीरो, बक़्िशयो<ref>सेना को वेतन बांटने वाला, कस्बों में कर वसूल करने वाला</ref> नव्वाबों खां॥
जागते दरबार में क्यों आधी-आधी रात वां।
क्या अजब नक़्शा पड़ा है आह, क्या कहिये मियां॥
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥3॥

गर न आटे दाल, का यां खटका होता बार-बार।
दौड़ते काहे को फिरते धूप में प्यादे सवार॥
और जितने हैं जहां मैं पेशेवर और पेशेदार।
एक भी जी पर नहीं है, इस सिवा सब्रो क़रार<ref>स्थिरता, सुकून</ref>॥
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥4॥

अपने आलम में यह आटा दाल भी क्या फर्द है।
हुस्न की आनो अदा, सब इसके आगे गर्द है॥
आशिक़ों काभी इसी के, इश्क़ से मुंह ज़र्द है।
ताकुजा कहिए कि क्या, वह मर्द क्या नामर्द है॥
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥5॥

दिलबरों की चश्म अबरू जुल्फ़ क्या, खतोख़ाल है।
नाजकी, शोख़ी, अदाऐं हुस्न लालों लाल है॥
क्या कमर पतली है काफ़िर, क्या ठुमकती चाल है।
ग़ौर कर देखा है जो कुछ है सो आटा दाल है।
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥6॥

अब जिन्हें अल्लाह ने यां कर दिया कामिल फ़क़ीर।
वह तो बेरपवा सख़ी, दाता हैं आप ही दिल पज़ोर॥
और जितने हैं वह सब हैं दाल आटे के असीर।
इन ग़रीबों की भी अब यह शक्ल हैगी ऐ! ”नज़ीर“॥
सबके दिल को फ़िक्र है दिन रात आटे दाल का॥7॥

शब्दार्थ
<references/>