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ग़ज़ल-1 / नज़ीर अकबराबादी

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न सुर्खी गुंचययोगुल<ref>कली और फूल</ref> में तेरे दहन<ref>मुख, मुंह</ref> की सी,
न यासमन<ref>चमेली</ref> में सफाई तेरे बदन की सी।
मैं क्यों न फूलूं कि उस गुल बदन के आने से,
बहार आज मेरे घर में है चमन की सी।
ये बर्क़<ref>बिजली</ref> अब्र<ref>बादल</ref> में देखे से याद आती है,
झलक किसी के दुपट्टे में नौरतन की सी।
गुलों के रंग को क्या देखते हो ऐ खू़बां<ref>सुकुमारियाँ</ref>,
ये रंगतें हैं तुम्हारे ही पैरहन<ref>कुर्ता</ref> की सी।
जो दिल था वस्ल<ref>मिलन, संयोग</ref> में आबाद तेरे हिज्र<ref>वियोग</ref> में आह,
बनी है शक्ल अब उसकी उजाड़ बन की सी।
जो अपने तन को न दे नस्तरन<ref>एक सुगन्धित फूल, सेलती</ref> से अब तश्बीह<ref>उपमा</ref>,
भला तू देख ये नमीं है तेरे तन की सी।
तेरा जो पांव का तलवा है नर्म मखमल सा,
सफाई उसमें है कैसी तो नस्तरन की सी।
नज़ीर एक ग़ज़ल इस ज़मीं में और भी लिख,
कि अब तो कम है रवानी<ref>प्रवाह</ref> तेरे सुख़न की सी॥9॥

शब्दार्थ
<references/>