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कविता-तीन / विनोद स्वामी
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गळी री नाळी में
तिरतो बगै
एक तिणकलो।
वीं माथै
अबार ई
एक मकोड़ो
आंटी लगा’र चढ्यो है
अर सकून साथै
हाथां सूं पूंछ्यो है मूं।
हाल
जीवण-मरण रो
जुध होयो है अठै
जकै में
जीवण जीत्यो है।
म्हनैं लाग्यो
गळी री नाळी में
तिरती बगै एक
सांवठी कविता।