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प्रार्थना - 1 / प्रेमघन
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ही मैं धारे स्याम रंग ही को हरसावै जग,
भरै भक्ति सर तोपि कै चतुर चातकन।
भूमि हरिआवै कविता की कवि दोष ताप,
हरि नागरी की चाह बाढ़ै जासो छन छन॥
गरजि सुनावै गुन गन सों मधुर धुनि,
सुनि जाहि रसिक मुदित नाचै मोर मन।
बरसत सुखद सुजस रावरे को रहै,
कृपा वारि पूरित सदा ही यह प्रेमधन॥